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भाई-बहन हाथी हो गए

bhai bahan hathi ho ge

बहुत समय पहले की बात है, उन दिनों त्रिपुरा की पहाड़ियों पर केवल जूम खेती हुआ करती थी। किसान अपने परिवार सहित पीठ पर लांगा (शंकुआकार टोकरी) लटका कर धान काटने जाते और धान काट-काटकर अपने लांगा में रखते जाते। जब लांगा भर जाता तो उसे घर जाकर अनाजघर में ख़ाली कर देते और फिर लांगा लेकर खेत पर जाते। ऐसा ही एक किसान परिवार सेवार नामक पहाड़ी पर जूम खेती करता था। उस परिवार में पति-पत्नी और दो बच्चे थे। दोनों बच्चों में एक बेटा तथा एक बेटी थी। भाई-बहन में अगाध प्रेम था।

जब भाई-बहन विवाह योग्य बड़े हो गए तब भी उनके बीच प्रेम बना रहा। वे साथ-साथ खेत में जाते और लांगा भरकर साथ-साथ घर लौट आते। घर से खेत और खेत से घर के दिन में दो-तीन चक्कर उनके हो जाते। पहाड़ियों के उतार-चढ़ाव भरे रास्तों में उन्हें पसीना आने लगता और घर लौटकर उन्हें नहाना पड़ता।

एक बार भाई-बहन आपस में बातें करने में इतने खो गए कि उन्हें खेत पर पहुँचने में देर हो गई। उनके देर से आने पर उनकी माँ ने उन्हें डाँटा। भाई-बहन ने कहा कि वे देर से आने के बदले जल्दी-जल्दी काम करेंगे और रास्ते में रुककर कहीं नहा लेंगे। तब माँ ने उन्हें सचेत किया कि वे रास्ते में पड़ने वाले दो कुओं में से दाहिने कुएँ में नहाकर बाएँ कुएँ में नहाएँ। दाहिने कुएँ की ओर देखें भी नहीं।

भाई-बहन जब घर को लौटने लगे तो रास्ते में दोनों कुएँ पड़े। कहा जाता है कि जिस काम के लिए मना किया जाए उसके प्रति उत्सुकता बढ़ जाती है। यही भाई-बहन के साथ हुआ। वे कुछ देर सोच-विचार करते रहे फिर दाहिने कुएँ की ओर बढ़ गए।

‘लेकिन माँ ने मना किया है।’ भाई ने बहन से कहा।

‘हाँ, किया तो है किंतु दाहिने कुएँ का पानी स्वच्छ है और बाएँ कुएँ का गंदा है। हो सकता है कि माँ गुस्से के कारण भूल से उल्टा कुआँ बता बैठी हों।’ बहन ने कहा। उसे दाहिना कुआँ आकर्षित कर रहा था।

‘तुम ठीक कहती हो।’ भाई को बहन की बात सच लगी। वह भी बहन के पास खड़ा हुआ जो कुएँ के पानी में तैरने को तैयार खड़ी थी।

भाई-बहन दोनों स्वयं पर नियंत्रण रख सके और माँ की सीख भूलकर दाहिने कुएँ के पानी में तैरने लगे। बहुत देर तक तैरने के बाद वे कुएँ से बाहर निकले। बाहर निकलते ही उनके शरीर में खुजली आने लगी। वे अपना शरीर खुजाने लगे। वे जैसे-जैसे खुजाते वैसे-वैसे उनका शरीर फूलता जाता। उनकी नाक भी लंबी हो गई और कान बड़े को गए।

‘अरे तुम तो हाथी बन गए!’ बहन ने घबराकर भाई से कहा।

‘तुम भी हथिनी दिखाई दे रही हो।’ भाई रुँआसा होकर बोला।

थोड़ी देर में दोनों हाथी और हथिनी के रूप में बदल गए। अब वे डर गए कि माँ तो उन्हें डाँटेगी ही उस पर गाँव वाले भी देखकर हँसेंगे। वे लज्जित होते हुए जंगल में चले गए।

इधर जब माँ-बाप घर लौटे और अपने बच्चों को उन्होंने घर पर नहीं पाया तो वे चिंतित हो उठे। माँ को शंका हुई कि कहीं उन लोगों ने दाहिने कुएँ में तो नहीं नहा लिया क्योंकि उसी दिन दाहिने कुएँ की चर्चा हुई थी। माँ-बाप दोनों कुएँ के पास पहुँचे। उन्होंने देखा कि दाहिने कुएँ के पास दोनों की लाxगा पड़ी हुई थी। यह देखकर माँ समझ गई कि उनके साथ अवश्य कुछ बुरा घटा है।

माँ ने अपने बच्चों को पुकारना शुरू किया। भाई-बहन ने माँ की आवाज़ सुनी तो वे भी व्याकुल हो उठे। वे दौड़कर माँ के सामने खड़े हुए। माँ ने अपने सामने हाथी और हथिनी को देखकर जान लिया कि वही उसके बच्चे हैं। माँ ने दोनों को गले से लगाया और ख़ूब दुलार किया। वे दोनों माँ के साथ घर लौट आए। लेकिन अब वे घर के भीतर नहीं जा सकते थे। वे रात भर बाहर खड़े रहे।

भोर होने पर सभी को इस बात का पता चला तो उन्हें भाई-बहन की इस दशा के लिए बहुत दुख हुआ। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने कहा कि हाथी के रूप में वे गाँव में नहीं रह सकते हैं उन्हें जंगल में जाना होगा। माँ ने भी अपना मन कड़ा करके कहा कि यही उन दोनों के लिए उचित होगा।

अंतत: भाई-बहन को गाँव वालों ने अश्रुपूरित आँखों से विदाई दी। माँ ने अपने बच्चों को विदा करते हुए उनसे कहा, ‘आग से डरना, तीर से भय करना और केले के पेड़ खोज-खोजकर खाना।’

भाई-बहन ने एक बार माँ की सीख नहीं मानी जिसका परिणाम वे भुगत रहे थे अत: इस बार उन्होंने अपनी माँ की सीख अपने मन में बिठा ली और सदा पालन करने का प्रण लिया।

ऐसी मान्यता है कि उस दिन से हाथी आग तथा तीर से डरते हैं और केले का पेड़ खोज-खोजकर खाते हैं।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 333)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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