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घुँघराला बाल और राक्षस

ghunghrala baal aur rakshas

एक धनी ज़मींदार हद दर्ज़े का कंजूस था। उसकी कंजूसी और जिद के कारण कोई काश्तकार उसके पास टिकता नहीं था। कुछ ही समय में यह नौबत गई कि उसके खेतों को हल के दर्शन दुर्लभ हो गए। तालाब सूख गए। नहरें झाड़-झंखाड़ से अंट गईं। ज़मींदार की हालत दिनोंदिन खस्ता होती चली गई। इतना सब होने पर भी वह बिलकुल नहीं बदला। कामगारों को मजूरी देते उसकी नानी मरती थी। एक दिन उसके पास एक संन्यासी आया। ज़मींदार की विपदा सुनकर उसने कहा, “मेरे पास एक मंत्र है। यदि तुम तीन मास तक इसका लगातार जाप करोगे तो एक ब्रह्मराक्षस प्रकट होगा। वह तुम्हारा दास होगा और तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन करेगा। वह अकेला सौ व्यक्तियों जितना काम करेगा।”

ज़मींदार ने संन्यासी के पाँव पकड़ लिए और उससे तुरंत दीक्षा देने की याचना करने लगा। संन्यासी ने उसे पश्चिम की तरफ़ मुँह करके बिठाया और मंत्र सिखा दिया। ज़मींदार ने खुले हाथ से दक्षिणा दी। दक्षिणा लेकर संन्यासी चला गया।

ज़मींदार ने तीन महीने तक रात-दिन मंत्र का जाप किया। चौथे महीने के पहले दिन एक ब्रह्मराक्षस उसके सामने प्रकट हुआ। भीमकाय और डरावना राक्षस उसके पैरों में गिर पड़ा, “क्या आज्ञा है स्वामी?”

ज़मींदार आँखें फाड़-फाड़कर राक्षस को देखने लगा। उसके विशाल डीलडौल और कड़कती हुई आवाज़ से ज़मींदार के रोएँ खड़े हो गए। अटकते-अटकते बोला, “मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी चाकरी करो और मेरे आदेश का पालन करो।”

राक्षस ने बहुत आदर के साथ हाथ जोड़कर कहा, “इसीलिए तो मैं आया हूँ। लेकिन कोई कोई काम मेरे पास हर वक़्त होना चाहिए। पहला काम ख़त्म होते ही मुझे दूसरा काम बताना होगा। मैं एक पल भी ठाला नहीं रह सकता। अगर आप मुझे कोई काम नहीं दे सके तो मैं आपको खा जाऊँगा। यह मेरा स्वभाव है।”

ज़मींदार मुस्कुराया। सोचा, उसके पास काम की क्या कमी! ऐसे कई राक्षस हों तब भी काम ख़त्म नहीं होगा। वह राक्षस को एक बड़े तालाब पर ले गया जो बरसों से सूखा पड़ा था। कहा, “इस तालाब की मरम्मत करो! इसे इतना गहरा खोदो कि इसमें दो ताड़ के पेड़ डूब जाएँ।”

“जो आज्ञा स्वामी!” राक्षस ने कहा और काम में लग गया।

ज़मींदार का ख़याल था कि इस काम में महीनों लग जाएँगे। तालाब एक कोस लंबा और एक कोस ही चौड़ा था। वह मुदित मन से घर गया, डटकर खाना खाया और पत्नी से इधर-उधर की बातें करने लगा। पत्नी ने बरसों बाद उसे इतना ख़ुश देखा था। लेकिन उस साँझ को ही राक्षस ज़मींदार के सामने खड़ा हुआ और कहा कि उसने तालाब का काम निबटा दिया है। ज़मींदार ने कहा, “क्या? निपटा दिया? इतनी जल्दी? अच्छी बात है, अब मेरे सारे खेतों की निराई कर डालो और उनके सारे कंकर-पत्थर बाहर फेंक दो! मेरे खेत बीस गाँवों में फैले हुए हैं। उन्हें जुताई के लिए तैयार कर दो ! यह काम खत्म होने से पहले मेरे पास मत आना।”

“जो आज्ञा स्वामी!” राक्षस ने कहा और ओझल हो गया।

उसकी हज़ारों बीघा ज़मीन बरसों से लावारिस पड़ी थी। किसी ने उसमें पाँव भी नहीं रखा था। घास और झाड़-झंखाड़ से वह ढक गई थी। ज़मींदार ने सोचा कि उसकी सफ़ाई करने में राक्षस को सालों नहीं तो महीनों तो लग ही जाएँगे।

रात को ज़मींदार सोने जा रहा था कि राक्षस उसके सामने उपस्थित हुआ और बोला, “हो गया स्वामी! आपके खेत तैयार हैं।”

ज़मींदार उसकी काम करने की गति से चकित रह गया और डरा भी। हड़बड़ी में बोला, “ठीक है, इनकी जुताई कर दो और चावल बो दो। फिर तालाब से इनकी सिंचाई कर दो। जितना जरूरी हो उतना ही पानी देना, ज़्यादा कम।”

राक्षस ने कहा, “अच्छा स्वामी!” और अदृश्य गया।

“इसमें कम से कम एक सप्ताह तो लग ही जाएगा,” “ज़मींदार ने सोचा और सो गया। पर राक्षस ने उसे थोड़ी देर बाद ही जगा दिया और कोई काम बताने को कहा। ज़मींदार सिहर उठा। रात भर वह उसे काम पर काम बताता रहा, नए-नए काम गढ़ता रहा। उसका घर धुल गया। गायें दुह ली गईं और उन्हें स्नान करा दियागया। कई नए मकान बन गए। दुनिया के हर कोने से फलों और फूलों के भाँति-भाँति के पौधे ला-लाकर उसके बग़ीचे में लगा दिए गए। राक्षस ज्यों-ज्यों ज़मींदार के आदेशों का अभ्यस्त होता गया त्यों-त्यों उसके काम की रफ़्तार बढ़ती गई। थकना तो वह जानता ही था। सुबह होते-होते भयाक्रांत ज़मींदार थककर चूर हो गया। “कुछ समझ में नहीं आता उसे क्या काम बताऊँ? अब मैं क्या करूँ ?” वह निराशा से चिल्लाया और अपने बाल नोचने लगा। उसकी यह हालत देखकर पत्नी ने उसे ढाढस बँधाया, “यों हिम्मत हारने से कैसे चलेगा! उन कामों के बारे में सोचो जिन्हें आपने कभी करवाना चाहा था। वे सारे काम राक्षस से करवा लो! जब आपके पास उसे देने के लिए कोई काम हो तो उसे मेरे पास भेज देना!”

ज़मींदार ने राक्षस से कहा कि वह उसे जो-जो काम उसने किए हैं सब दिखाकर लाए। राक्षस उसे अपनी पीठ पर बिठाकर ले चला। कोसों तक ज़मींदार ने अपने दक्ष राक्षस सेवक के कार्यों का मुआयना किया। उसका विशाल और गहरा तालाब निर्मल पानी से छिलाछिल भरा था। बीस गाँवों में फैले उसके खेतों में खरपतवार का नामोनिशान नहीं था और उनमें चावल बो दिए गए थे। बग़ीचे में भी उसे कहीं कोई कमी नज़र नहीं आई। उसमें देश-विदेश के एक से एक सुंदर पेड़-पौधे झूम रहे थे। नए मकान बहुत सुंदर थे और उनमें ज़रूरत और सजावट का तमाम सामान मौजूद था। गायों का दूध निकाल दिया गया था और उन्हें नहला दिया गया था। सारा काम कुछ घंटों में निपटा दिया गया था। ज्यों-ज्यों ज़मींदार नए काम के लिए अपने दिमाग़ पर जोर डालता त्यों-त्यों उसकी उत्तेजना बढ़ती जाती थी। राक्षस ने अधीर होकर कहा, “बताओ, और क्या करवाना चाहते हो? बताओ, जल्दी बताओ! मुझे नया काम बताओ! मैं और इंतज़ार नहीं कर सकता।”

ज़मींदार को पत्नी का कहा याद आया। बोला, “आज तक के मेरे तमाम नौकरों में तुम सबसे श्रेष्ठ हो। अब जरा मेरी पत्नी के पास जाओ! उसके पास तुम्हारे लिए एक छोटा-सा काम है।”

ज़मींदार ने सोचा, इस अथक राक्षस के हाथों उसकी मौत को कोई टाल नहीं सकता। उसकी पत्नी राक्षस को आख़िर कितनी देर व्यस्त रख सकेगी? बस, थोड़ी देर की ही बात है। फिर उसका खेल ख़त्म! आँखें बंद करके वह भगवान का सुमिरन करने लगा।

तभी उसकी पत्नी ख़ुद ही उधर गई। उसके हाथ में एक लंबा काला घुँघराला बाल था। यह बाल उसने अभी-अभी अपने सर से तोड़ा था। बोली, “ब्रह्मराक्षस, एक छोटा-सा काम मेरा भी कर दो! यह बाल लो और इसे सीधा करके लाओ!”

राक्षस ने ख़ुशी-ख़ुशी उसके हाथ से बाल लिया और पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर उसे सीधा करने लगा। वह बाल को अपनी चौड़ी जाँघ पर रखकर हथेली से ख़ूब मसलता, घुमाता और बार-बार उसे उठाकर देखता कि वह सीधा हुआ कि नहीं। उसने कुछ भी क्यों किया, पर बाल के घुँघर वैसे ही रहे। तमिल महिला के घुँघराले बाल को सीधा करने की किसी भी युक्ति का कोई फल नहीं निकला। अचानक उसे याद आया कि सुनार तार को पहले आग में तपाते हैं और फिर उसे पीटकर सीधा करते हैं। सो वह सुनार की दुकान पर गया और सुनार के सोने के बाद बाल को भट्ठी में डाला। भट्ठी में डालते ही बाल सिकड़ा और धुआँ बनकर हवा में गुम हो गया। बंद दुकान में सिर्फ़ धुएँ की तीखी गंध ही शेष रही। राक्षस के पाँवों के नीचे से ज़मीन खिसक गई, “अब मैं क्या करूँ? बाल वापस नहीं लौटाया तो स्वामिनी क्या कहेगी?”

उसके कुछ समझ नहीं पड़ा कि वह क्या करे और क्या करे। उसकी निराशा और भय की सीमा रही। वह स्वामिनी को क्या मुँह दिखाएगा! वह क्या कहेगी? अंततः वह भाग खड़ा हुआ। पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 223)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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