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अवधी लोकगीत : हे सखी, स्याम सुंदर बिनु कइसे जियब हो

avdhii lokagiit : he sakhii, syaam su.ndar binu ka.ise jiyab ho

अन्य

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रोचक तथ्य

संदर्भ—विरहाधिक्य।

हे सखी, स्याम सुंदर बिनु कइसे जियब हो।।टेक।।

पहिल मास असाढ जो होय,

बन्धन का रे छवै सब कोय।

मैं काहि छवावौं पिया परदेस, सो अब ना जियब हो।।1।।

दूसरे मास सावन जब होय,

घर-घर झूला झुलै सब कोय।

मैं का रे झूलौं पिया परदेस, सो अब ना जियब हो।।2।।

भादौं मास घटा घनघोर—

बिजली के चमके होत अँजोर।

मैं का रे जानौं पिया आये हैं मोर, सो अब ना जियब हो।।3।।

कुवार मास कुँवारी जो होय,

घर-घर कुँवारी खियावै सब कोय।

मैं का रे खियावौं पिया परदेस, सो अब ना जियब हो।।4।।

सखी दूसरी से कहती है—हे सखी! श्याम सुंदर कृष्ण के बिना मैं कैसे जीवित रहूँगी?।।टेक।।

पहला मास आषाढ़ जब होता है तो सब कोई अपने घर के बंधन (छानी-

छप्पर) छाता है। मैं किसे छवाऊँ, मेरे प्रिय (पति) तो विदेश में हैं।।1।।

दूसरा मास सावन जब होता है, तो घर-घर लोग झूला झूलते हैं। मैं क्या

झूलँ, मेरे प्रिय तो विदेश में हैं।।2।।

भादौ के महीने में घनघोर घटा छा जाती है (जिससे अँधेरा हो जाता है),

बिजली के चमकने पर उजाला होता है। मैं क्या जानूँ कि मेरे प्रियतम आए हैं?।।3।।

कुआर मास में कुँवारी होती है। घर-घर सब कोई कुमारी कन्याओं को खिलाते हैं। मैं क्या खिलाऊ? मेरे पति जी तो परदेस में हैं।।4।।

स्रोत :
  • पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 180)
  • संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
  • प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
  • संस्करण : 2002

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