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कवि और कविता

kavi aur kavita

जयशंकर प्रसाद

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जयशंकर प्रसाद

कवि और कविता

जयशंकर प्रसाद

और अधिकजयशंकर प्रसाद

    कवियों को लोगों ने सृष्टिकर्ता माना है, क्योंकि वे मनुष्य को जब कि यह कविता का अनुशीलन करने लगता है, तब एक अभिनव सृष्टि का दर्शन कराता है। बहु संसार के साँचे में नहीं ढलता, किंतु संसार को अपने साँचे में ढालना चाहता है। मनुष्य के हृदय के लिए वह बड़ी सुंदर सृष्टि रचता है, जिसमें प्रवेश करने से कविता पाठक एक प्रकार से बाह्य ज्ञान शून्य होकर बसंतमय कनक-कमल-मकरंद-पुर-कानन में आनंद-मय समय व्यतीत करता है।

    लोकोक्ति है कि 'रोना और गाना किसे नहीं आता उसी तरह से कविता में भी कल्पना की जो लीलाएँ हैं, उन्हीं का अनुकरण करते हुए प्रायः सब मनुष्य कल्पना करते हैं, अपने विचारों को सोचते हैं, प्रकट करते हैं; पर कवि की तरह अपने विचार कौन प्रकट कर सकता है? उसके हरित सघनकुंज जिनके पत्र मरकत को भी लजाते हैं, जिन पर धूल के कणों का स्पर्श भी नहीं है, कौन निर्मित कर सकता है? उसके ऐसे आनंदमय राज्य में जहाँ पाप, कलह, द्वेष, भय का लेश नहीं है, कौन राज्य कर सकता है? वहाँ कवि सांत्वनामयी राजाज्ञा का प्रचार करता है, वह फूलों को भी चिरस्थायी बनाता है, इसी से कहना पड़ता है कि उसकी सृष्टि विलक्षण चमत्कारिणी है, और सच्चा कवि अमरजीवन लाभ करता है।

    सौंदर्य की आलोचना आप कर सकते हैं, उसे अपने चित्त में स्थान दे सकते हैं, उसकी सुंदरता का वर्णन कर सकते हैं; पर क्या कभी इतना कहने का साहस भी कर सकते हैं—'गिरा अनयन नयन बिनु बानी'? अस्तु, इतना कहने का अधिकारी वही है।

    कवि मानव स्वभाव के परिज्ञान के समान ही प्रकृति ज्ञान का भी उद्योग करता है, और वह उसके अनुशीलन में उसी तरह लगा रहता है। महाकवि वाल्मीकि के लिए कोई बड़ा भारी पुस्तकालय नहीं था, उन्होंने अपना महाकाव्य लिखने के लिए जो सुंदर जाह्नवी तट पर कुसमित कानन निर्धारित किया था, वह क्यों? वे प्रकृति का बाह्य तथा आंतरिक चक्षु से अन्वेषण करते थे, तब उनकी प्रतिभा ऋतु वर्णन में इतनी देखी जाती हैं, प्रकृति के एक-एक क्षुद्र अंश, यहाँ तक कि महान् वृक्ष की डालियों में की छोटी-छोटी पत्तियों की नसें भी उनसे बातें करती थीं। कवियों से जैसा प्राभातिक पवन खेलता है, किसी देव-शिशु को भी वैसी क्रीड़ा नहीं आती।

    राका की मधुरता जैसा उसके नेत्रों को सुंदर दृश्य दिखाती है, विहग का कलरव जैसा उसके कर्ण में सुंदर सुनाई पड़ता हैं, वैसा किसी को नहीं। हाँ, जब वह अपनी अभिनव सृष्टि में इनका समावेश करता है तब उसके प्रेमी उसको देखते हैं, तथा सुनते हैं।

    कवि में क्लीव को तलवार ग्रहण करा देने की शक्ति है, वह चिरःदुखी को सुखमय कर सकता है, पर तब जब वह सच्चा कवि हो। महादुर्द्धर्ष औरंगज़ेब का प्रतिपक्षी बनना शिवाजी ऐसे सामान्य भूस्वामी का कार्य नहीं था, यह उस उत्तेजनामयी त्यों मलेच्छ वंश पर शेर शिवराज है कवि (भूषण की) वाणी का ही प्रताप था।

    देखिए, महावीर विक्रमादित्य का केवल एक दुर्गद्वार, जो कि भग्नप्राय है, शेष चिह्न रूप है; किंतु कालिदास की 'शकुंतला' अभी भी सद्यः प्रस्फुटित वकुल-मुकुल की तरह अपने सौरभ से दिगंत को व्याप्त कर रही है, उसकी एक मात्रा का भी ह्रास नहीं है, दिन-दिन उसकी सुगंध से मनुष्य का मस्तिष्क शीतल होता है, और हुआ करेगा। इस कारण से कवि अमर जीवन लाभ करता है।

    इसी तरह सच्चे कवि की कविता भी अलौकिक आनंद दान करती है, क्योंकि यह उसकी सृष्टि है। महान् कवि की कविता का बल, बुद्धि और आनंद के जलयंत्र से तुलना कर सकते हैं, वह मनुष्य जीवन में अलौकिक बल प्रदान करती है, उसकी प्रतिभा अपना मधुर प्रकाश जब मनुष्य हृदय पर डालती है तब उसका अंधकारमय हृदय भी उज्ज्वल आलोक से पूर्ण हो जाता है। यदि अनुकूल कविता कहीं मिल जाती है, तो चित्त की शंका भी दूर हो जाती है। कविता प्रथम में प्रायः सब भाषाओं में पद्यमय देखी जाती है, यहाँ तक कि हम लोगों का महामान्य वेद भी छंदमय है, इसका कारण लोग बताते हैं कि जब लिखने-पढ़ने की परिपाटी नहीं थी, तब लोग कंठस्थ करने के लिए वर्णक्रम से पद्योजना करके उसको कंठस्थ करते थे, किंतु ध्यान से देखा जाए, तो इसका एक यही कारण नहीं था। पद्यमय रचना एक और भी उपयोग करती है, जैसे किसी कवि ने कहा है—पूर्व काल में मंत्र थे कड़वे रनके।” यदि विचार किया जाए तो यह सरलतया समझ में जाएगा कि कविता जहाँ ओज दान करती है वहाँ पद्य ही है, क्योंकि प्रायः संक्षिप्त और प्रभावमयी तथा चिरस्थायिनी जितनी पद्यमय रचना होती है, उतनी गद्य रचना नहीं। इसी स्थान में हम संगीत की योजना कर सकते हैं, सद्यः प्रभावोत्पादक जैसा संगीत पद्यमय होता है, वैसी गद्य रचना नहीं। चित्रकारी तथा कविता से लोग मिलान करते हैं, पर कविता एक अचिंत्य पूर्व सुंदर चित्र खींच देती है जो कि बोल भी सकता है, पर चित्र वैसा नहीं कर सकता, यद्यपि कविता और चित्रकारी का कार्य्य एक ही है, पर यह मलयज पवन का भी चित्र खींच सकता है, उसको बुला सकता है, और उसके साथ खेल सकता है, इससे कविता एक जीवंत चित्र प्रस्तुत कर सकती है। उसी प्रकार संगीत केवल स्वर ही प्रकट कर सकता है। यदि उसमें कुछ कविता हो तो केवल वह गूँगे का चिल्लाना ही प्रतीत होगा। यदि उसमें कविता का अंश मिला होगा तो कर्ण के साथ ही हृदय को भी आनंद देगा।

    कविता जो भावपूर्ण होती है, वह बड़ी हृदयग्राहिणी होती है। चित्त की वृत्तियाँ जो मानव हृदय में उदय हुआ करती हैं, उन्हें भाव कहते हैं। यद्यपि प्राचीन साहित्य में इनको रस के अतर्गत 'संचारी' तथा 'स्थायी' के नाम से स्थान मिला है, पर वे भाव उतने ही में पूरे नहीं हो सकते, वे केवल उसके स्थूल तथा प्रधान भेद हैं, और बहुत से चित्त के विकास अच्छे और बुरे जो सूक्ष्म रूप से हैं, समयानुकूल, या कार्य्यवश उत्पन्न हुआ करते हैं, उनमें जो अच्छे हैं, उन्हें उत्कर्ष देना, तथा दुर्वृत्तियों को दमन करना भावमयी कविता का मुख्यतम कार्य्य है। यद्यपि ये प्राचीन साहित्य में किसी किसी रूप में विद्यमान हैं, पर शृंगारी कवियों की कृपा से उनकी शृंगारी नायिकाओं में ही उन भावों को आश्रय मिला है।

    'उन्माद' जो एक संचारी भाव है, यदि नायिका-विरही नायक को छोड़कर किसी कुकर्म्मी के संतापमय चित्त में वह भाव अंकित किया जाए, तो कैसा प्रभावशाली होगा? इसका अनुभव जिन्होंने अँग्ररेज़ी 'म्याकबेथ' नाटक में 'म्याकबेथ पत्नी' का पार्ट पढ़ा होगा या देखा होगा, वे ही कर सकते हैं। इसी तरह उन भावों का दुरुपयोग होने से भावमयी कविता मनोनीत नहीं मिलती। भावमयी कविता प्रायः दो प्रकार की दिखाई देती है, जैसे कि 'कथामूलक भाव' और 'भावमूलक कविता'। कथामूलक भावों का प्रायः ऐतिहासिक पौराणिक काव्यों में समयानुकूल या आवश्यकतानुसार समावेश दिखाई पड़ता है। जैसे 'उत्तर रामचरित' में जब लक्ष्मण, श्रीरामचंद्र को चित्र दिखाते हैं, तो उन वन-भूमियों के चित्र को देखकर उनके हृदय में पूर्वस्मृति जागरूक होती है, तब वह जानकी जी से कहते हैं—

    अलसल लितमुग्धान्यध्व सम्पातखेदा-

    दशिथिलपरिरम्भैदत्त सम्वाहनानि।

    परिमृदितमृणाली दुर्बलान्यंगकानि।

    त्वमुरसि मम कृत्वा यत्र निद्रामवासा॥

    किमपि किमपि मन्दं मन्दमासक्तियोगा-

    दविरलितकपोलं जल्पतोरक्रमेण।

    अशिथिल परिरम्भव्यापृतैककदोष्णो-

    रविदित गतयामा रात्रिरेवं व्यरंसीत्।

    'शकुंतला' में कंवमहर्षि का भी कन्या की ओर जो प्राकृतिक प्रेम था, उसी का निदर्शन कराते हुए महाकवि कालिदास लिखते हैं—

    यास्यत्यद्य शकुंतलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कंठया

    अंतर्वापरापरोधिगदितं चिंताजड़ दर्शनम्।

    वैक्लव्यं मम तावदीदृशमपि स्नेहादरण्यौकसः

    पीड्यंते गृहिणः कथं तनया विश्लेषु दुःखनंवैः?

    और तुलसीकृत 'रामचरितमानस' में धनुष भंग के समय, जानकी के हृदय में भी एक अपूर्व शंकामय भाव उत्पन्न हुआ था—

    सो धनुराज कुँवर कह देहीं।

    बाल मराल कि मंदर लेहीं॥

    दूसरी भावमूलक कविता, जिसमें भाव को प्रधान मानकर कविता की जाती है, वह एक तो भाव के अनुकूल तथा बनाकर लिखी जाती है, जैसे 'वेणीसंहार-नाटक'; इसमें द्रौपदी का स्त्रीजन सुलभ प्रतिहिसामयी उत्तेजना से भीम का दुःशासन के हृदय का रक्तपान करना!

    हिंदी में भी श्रीधर पाठक का 'ऊजड़ ग्राम' इसी विभाग में आवेगा, जो कवि ने बहुत दिन पर उस गाँव को देखकर उसकी शोचनीय अवस्था का चित्र खींचा है,जन्मभूमि-प्रेमीमात्र में उस भाव का होना संभव है।

    प्रायः भावमयी कविता स्फुट भी मिलती है, यथा—

    जा थल कोन्हे बिहार अनेकिन,

    ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करें

    जा रसना ते करी बहु बातन,

    ता रसना ते चरित्र गुन्यो करें

    'आलम' जौन ते कुंजन में

    करी केलि, तहाँ अब सीस धुन्यो करें

    नैनन में जो सदा बसते,

    तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करें॥

    या मैथिलीशरण गुप्त की बनाई हुई 'कृष्णा के केशों की कथा' इत्यादि। कुटिल, उदार, दुष्ट, क्रूर, दयावान, तथा चिंताशील हृदय आदि के भावों को दिखाने वाली कविता, संसार के व्यवहार की भावमयी कविताएँ, अपना प्रभाव मनुष्य के चरित्र पर डालती हैं, जिससे वह सुधरता है।

    हिंदी में प्रायः शृंगार रस की कविता के सामने ऐसी कविताओं का अभाव है। यद्यपि अब कुछ-कुछ इस ओर लोगों की रुचि फिरी है, पर कहाँ तक फिरेगी जबकि उनके सामने केवल शृंगाररस से भरे हुए 'नायिका भेद' की क्रिया, विदग्धा में अपनी क्रीड़ा दिखाया करेंगी।

    यहाँ हम कुछ शृंगार रस के भी विषय में लिखना चाहते हैं। हिंदी साहित्य में प्रायः वैष्णव कवि विशेष हुए हैं, और उन्हीं की कविता ब्रजभाषा की मूल है। सुर, केशव, तुलसी आदि सब वैष्णव कवि हैं और उनके बाद के भी प्रायः ब्रजभाषा के कवि, जैसे तोषनिधि आदि, वैष्णव हुए। इन लोगों को अपने उपास्य देवता में शृंगार भाया। जब प्रधान उपासकों की यह दशा थी, तो अनुयायी कवि लोग भी उसी रंग में रंगे जाने लगे। श्रीयुत अंबिकादत्त जी भी उसको नहीं छोड़ सके, स्फुट कविताएँ तो क्या, 'दृश्य ललिता नाटिका' भी इसी तरह के शृंगार वर्णन में लिखी गई है। दृश्य काव्य में रसस्थापन आदि, तथा सामाजिक विषयों की बहुत ही विवेचना की जाती है, तो भी 'ललिता' को शृंगार रस की नायिका बनाया है।

    यद्यपि साहित्य के बहुत से आचार्यों ने, गणिका में रसाभास माना है, तो भी लोगों ने 'वैशिक' नायक, तथा परकीया 'गणिका' आदि नायिकाओं में शृंगार रस का विशेष वर्णन किया है, जिससे उसकी अश्लीलता बढ़ गई है। देखिए 'शकुंतला' को शुद्ध शृंगार रस प्रधान नाटक मानते हैं, पर उसमें तो कहीं भी रति ऐसे अश्लील शृंगार का विवरण नहीं है। तो भी उसे लोग बहुत आदरणीय दृष्टि से देखते हैं, इसका कारण यह है कि उसमें शृंगार रस का वर्णन ऐसी पवित्रता के साथ किया गया है कि जिसे पढ़कर चित्त पुलकित हो जाता है। ऋषि कन्या शकुंतला को देखकर दुष्यंत के हृदय में जो आसक्ति उत्पन्न हुई उसे भी समाज बंधन में ले आने के लिए कवि कुलगुरू कालिदास कैसा अच्छा लिखते हैं—

    असंशयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा

    यदाय्र्यमस्यामभिलाषि मे मनः।

    सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु

    प्रमाणमंत: करणप्रवृत्तयः॥

    अस्तु, शृंगार रस दूषित नहीं है, पर उसकी वर्णन शैली जो हिंदी में प्रचलित है, बहुत दूषित हो गई। प्रायः इसके प्रथम लेखक जयदेव जी हैं, उन्होंने ही इस शृंगार का प्रथम ग्रंथ 'गीत गोविंद' बनाया है, पर हिंदी में तो शृंगार रस के लक्षण भी विलक्षण बना डाले गए हैं। कवि तोषनिधि जी लिखते हैं—

    दम्पति जहँ लौं सुख लहैं,

    काम कला के फंद।

    सो शृंगार में प्रेम है,

    थाई आनंद कंद॥

    अब कहिए, इसका लक्षण विप्रलंभ शृंगार में भी ठीक हो सकता है? अस्तु, इन्हीं महात्माओं की कृपा से हिंदी साहित्य-प्रेमियों को शृंगार रस का नाम सुनते ही घृणा उत्पन्न होती है। और इसी कारण से प्रायः लोगों को अरुचि छंदों ग्रंथ पढ़ने में हो रही है।

    'सरस्वती' हिंदी में एक बहुमूल्य पत्रिका है, और उसका आदर भी है, पर क्या उसके सब अंश सबके मनोनीत होते हैं? कोई उसके गद्य लेखों पर प्रसन्न हैं, तो कोई चित्रों पर, कोई उसके रूप पर प्रसन्न हैं तो कोई उसकी छपाई पर। अधिकांश महाशय ऐसे हैं जो चित्र और गल्प तक ही रह जाते हैं, उसकी कविता का मर्म समझने की बात तो दूर है, उस पर ध्यान भी नहीं देते। यह क्यों, छंद विषयक अरुचि है? इसका कारण यह है कि सामयिक पाश्चात्य शिक्षा का अनुकरण करके जो समाज के भाव बदल रहे हैं उनके अनुकूल कविताएँ नहीं मिलती और पुरानी कविता को पढ़ना वो मानो महादोष-सा प्रतीत होता है, क्योंकि उस ढंग की कविता बहुतायत से हो गई है।

    पर नहीं, उनसे घबड़ाना नहीं चाहिए, उनके समय के वही भाव उज्ज्वल गिने जाते थे, और अब भी पुरातत्त्व की दृष्टि से उन काव्यों को पढ़ने में अलौकिक आनंद मिलता है। अस्तु, पाठकों के अरुचि दिखलाने से कविता का बड़ा ह्रास हो सकता है। हमने प्रायः सुना है कि वह 'भटई' कविता है, किंतु पाठको! ध्यान से देखो, यदि भट्टीय काव्यों की जैसलमेर में स्थिति होती, तो टाडसाहब आज दिन इतना बड़ा राजस्थान बनाने में समर्थ होते।

    हिंदी में वसंत-कानन की मधुर शोभा है, पर गंभीर तरंगमय अनंत महासागर की कल्लोल मालाएँ दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। हम मानते हैं कि देव और तुलसी की कविता में आप मधुरता विशेष पाते हैं, पर उन्मादकारिणी तथा आपे से बाहर कर देने वाली कविता, आपको कहीं नहीं दिखाई देती। किंतु ठहरो, देखो जब मनुष्य की आंतरिक शक्ति का ह्रास होता है, तब वह नशा इत्यादि से अपने हृदय को वेगवान बनाना चाहता है। 'शृंगार रस' की मधुरता पान करते-करते आपकी मनोवृत्तियाँ शिथिल तथा अकुला गई हैं; इस कारण अब आपको भावमयी, उत्तेजनामयी, अपने को भुला देने वाली कविताओं की आवश्यकता है। अस्तु, धीरे-धीरे जातीय संगीतमयी, वृत्ति स्फुरणकारिणी, आलस्य को भंग करने वाली, आनंद बरसाने वाली, धीर गंभीर पद विक्षेपकारिणी, शांतिमयी कविता की ओर हम लोगों को अग्रसर होना चाहिए। वह समय अब दूर नहीं है, सरस्वती अपनी मलिनता को त्याग कर रही हैं, और नवलरूप धारण करके प्राभातिक उषा को भी लजावैगी, एक बार वीणाधारिणी अपनी वीणा को पंचम स्वर में फिर ललकारेंगी, भारत की भारती फिर भी भारत ही की होगी।

    इंदु —श्रावण 1967

    स्रोत :
    • पुस्तक : जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली (पृष्ठ 441)
    • संपादक : सत्यप्रकाश मिश्र
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

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