जयशंकर प्रसाद के निबंध
कवि और कविता
कवियों को लोगों ने सृष्टिकर्ता माना है, क्योंकि वे मनुष्य को जब कि यह कविता का अनुशीलन करने लगता है, तब एक अभिनव सृष्टि का दर्शन कराता है। बहु संसार के साँचे में नहीं ढलता, किंतु संसार को अपने साँचे में ढालना चाहता है। मनुष्य के हृदय के लिए वह बड़ी सुंदर
कविता रसास्वाद
"कविता कोई मूर्तिमती देवी नहीं है, जो उसका दर्शन कर लिया जाए, पर तो भी श्रीहर्ष ने सरस्वती-वर्णन के समय सरस्वती के कुछ अंगों से इसकी समता की है, जैसे— "जात्यावृत्तेन च मिद्यमानं छंदो भुजद्वंद्वममूद्यदीयम्। श्लोकार्ध विश्रांतिमयी भविष्णु पर्वद्वयोसंधि
नाटकों का प्रारंभ
कहा जाता है कि 'साहित्यिक इतिहास के अनुक्रम में पहले गद्य तब गीति-काव्य और इस के पीछे महाकाव्य आते हैं'; किंतु प्राचीनतम संचित साहित्य ऋग्वेद छंदात्मक है। यह ठीक है कि नित्य के व्यवहार में गद्य की ही प्रधानता है; किंतु आरंभिक साहित्य सृष्टि सहज में कंठस्थ
रंगमंच
भरत के नाट्य-शास्त्र में रंगशाला के निर्माण के संबंध में विस्तृत रूप से बताया गया है। जिस ढंग के नाट्य-मंदिरों का उल्लेख प्राचीन अभिलेखों में मिलता है, उससे जान पड़ता है कि पर्वतों की गुफाओं में खोदकर बनाए जाने वाले मंदिरों के ढंग पर ही नगर की रंगशालाएँ
यथार्थवाद और छायावाद
हिंदी के वर्तमान युग की दो प्रधान प्रवृत्तियाँ हैं, जिन्हें यथार्थवाद और छायावाद कहते हैं। साहित्य के पुनरुद्धारकाल में श्री हरिश्चंद्र ने प्राचीन नाट्य रसानुभूति का महत्त्व फिर से प्रतिष्ठित किया और साहित्य की भावधारा की वेदना तथा आनंद में नए ढंग से
रहस्यवाद
काव्य में आत्मा की संकल्पात्मक मूल अनुभूति की मुख्य धारा रहस्यवाद है। रहस्यवाद के संबंध में कहा जाता है कि उसका मूल उद्गम सेमेटिक धर्म-भावना है, और इसीलिए भारत के लिए वह बाहर की वस्तु है। किंतु शाम देश के यहूदी, जिनके पैगंबर मूसा इत्यादि थे, सिद्धांत
रस
जब काव्यमय श्रुतियों का काल समाप्त हो गया और धर्म ने अपना स्वरूप अर्थात् शास्त्र और स्मृति बनाने का उपक्रम किया—जो केवल तर्क पर प्रतिष्ठित था—तब मनु को भी कहना पड़ा—यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेदनेतरः। परंतु आत्मा को संकल्पात्मक अनुभूति, जो मानव-ज्ञान
नाटकों में रस का प्रयोग
पश्चिम ने कला को अनुकरण ही माना है; उस में सत्य नहीं। उन लोगों का कहना है कि "मनुष्य अनुकरणशील प्राणी है, इसलिए अनुकरणमूलक कला में उस को सुख मिलता है।" किंतु भारत में रस सिद्धांत के द्वारा साहित्य में दार्शनिक सत्य की प्रतिष्टा हुई क्योंकि भरत ने कहा
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere