भक्ति-काल की अंतर्चेतना
bhakti kaal ki antarchetna
(एक)
हमारा वैष्णव काव्य-साहित्य न दुखांत है, न सुखांत; वह तो प्रशांत है। रामायण को लीजिए। रोमांस और ट्रेजडी के बाद क्या है? सीता का वनवास और राम का राज्याभिषेक; मानो विषाद और हर्ष, अंधकार और प्रकाश की उष:शांति। कृष्ण चरित्र में भी इसी ब्राह्ममुहूर्त्त की झलक है। सौ-सौ विरह-क्रंदन उठाकर द्वारिकाधीश ने विश्व-जीवन के समुद्र-तट पर लोक-धर्म का जयनाद किया। हृदय के भीतर बहते हुए अपने ही अश्रुओं के प्रति कठोर होकर उस कोमलकलित वृंदावन-विहारी ने प्रणय के फाग को विश्व-वेदना की होली में धधका कर महाशांति दे दी।
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास—इन चार आश्रमों की योजना ही हमारे जीवन की अंतिम झाँकी को परम शांति में दिखलाती है। प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य में संयम की कठोरता में हमारे जीवन का प्रारंभ होता है, मीर अंतिम आश्रम संन्यास की कोमलता में उसका अंत होता है। ब्रह्मचर्य की प्राभातिक उज्ज्वलता संन्यास के सांध्यकाषाय में गोधूलि का अंचल हो जाती है, मानो हम अपने जीवन की चित्रकला (कविता) को एक सादी कला से प्रारंभ करते हैं, बीच में बासंती और इंद्रधनुषी छटा उठाकर, अंत में एक गंभीर शांत वर्ण (गोधूलि) में समाप्त कर देते हैं।
ब्रह्मचर्य में संन्यास तक के मध्य में रोमांस और ट्रेजडी है, किंतु ये हमारे जीवन-काव्य के गौण परिच्छेद हैं; आदि (ब्रह्मचर्य-मयम) और अंत (संन्यास-शांति) ही प्रधान है। कारण, हमारी संस्कृति ने संपूर्ण अनुरागों (मनोरागों) के ऊपर विराग को ही प्रधानता दी है। जो हमारा गौण है, वह दूसरे साहित्यों का प्रधान है, इसीलिए आधुनिक साहित्य में हम रोमांस और ट्रेजडी अथवा सुखांत और दुखांत की ओर ही झुकाव पाते हैं। सुखांत या दुखांत, जहाँ का साहित्यिक दृष्टि कोण है वहाँ की संस्कृति ऐहिक है। हमारी संस्कृति अतींद्रिय है। हमारा देश इन दिनों ऐहिक संस्कृति के संपर्क में भी है, अतएव, हमारे आधुनिक साहित्य की सृष्टि में वह दृष्टि भी अगोचर नहीं।
अपने प्राचीन साहित्य में हम यह भी देखते है कि अंत में ट्रेजडी का संपूर्ण भार गृहिणियों के मस्तक पर ही करुणा का ताज बनकर शोभित होता है, वनवास में सीता और कृष्ण-विरह में गोपिकाएँ करुणा की ऐसी ही सम्राज्ञियाँ हैं। पुरुष ने ट्रेजडी का भार अपने मस्तक पर नहीं लिया, यह क्यों? पुरुष यदि यह भार लेता तो यह उसका अनधिकार होता। इतना बड़ा भार लेकर वह इस पृथ्वी पर शेष नहीं रह जाता। पृथ्वी की भाँति हमारी गृह-देवियाँ ही सर्वसहा हैं, इसीलिए वे पृथ्वी की कन्याएँ है; सीता की भूमि-विलीनता इसी संकेत का रूपक है। माताओं ने जिस संसार को जन्म दिया है, उसकी रक्षा के लिए, प्रज्ञा-वत्सलता के लिए, वे वीरबाहुओं को जीवित-सुरक्षित देखना चाहती हैं। वे मरणांतक वेदना स्वयं लेकर अपनी स्मृति की संजीवनी से पुरुष को जीवित रहने के लिए छोड़ जाती है। वे मानो विधाता की एक विदग्धतम कृति के रूप में सूखी पृथ्वी पर अश्रु-सिंधु बहाकर चली जाती हैं और पुरुष मानो एक कवि के रूप में उनका स्मरण-कीर्तन करता रहता है। नारी, पुरुष के जीवन में जो करुणा-धन छहरा जाती है, उसी के कारण पुरुष शांति का प्रतिनिधि बन पाता है। करुणा ही मनुष्यता है। मनुष्यता के महासिंधु में पुरुष अपनी जीवन-नौका खेता है; मधु और कैटभ-जैसे जो असुर, मानवता के सिंधु को कलुषित करते हैं, वह उनका संहार करता जाता है।
जीवन की ट्रेजडी नारी के बजाए पुरुष के कंधो पर पड़ती तो हमारे आश्रमों की व्यवस्था ही बदल जाती। तब शायद एक ही आश्रम रह जाता—गृहस्थ। काव्य में एक ही रस रह जाता शृंगार उस स्थिति में राम-चरित्र और कृष्ण चरित्र का कथानक ही कुछ और हो जाता।
(दो)
हम पौराणिक भारतीयों की वैष्णव संस्कृति कलात्मक है, जिसका परिचय हमें अपने चित्रों, मूर्तियों और दशावतार की झाँकियों से मिलता है। यह संपूर्ण कलासृष्टि आध्यात्मिक संस्कृति के प्रकाशन के लिए है। वर्णमाला का बोध कराने के लिए जिस प्रकार शिशु-हाथों में सचित्र पोथियाँ दी जाती हैं, उसी प्रकार जनता को अदृश्य आत्मानंद का ज्ञान कराने के लिए हमारे समाज और साहित्य में सगुण आराधना अर्थात् भक्ति-मय चित्र-काव्य उपस्थित किया गया है। इस प्रकार सत्य ने सौंदर्य धारण किया है, अदृश्य ने दृष्टांत पाया है। वे सगुण झाँकियाँ आज लैंटर्न-लेक्चरों (व्याख्यान-चित्रों) से अधिक सजीव और मानवी हैं। वे अवैज्ञानिक नहीं, मनोवैज्ञानिक है; जनता की रसवृत्ति से काव्य-द्वारा सहयोग करती हैं।
हम सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् के चिर उपासक हैं, इसलिए कि, हम केवल लौकिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक संस्कृति के पूजक है। लौकिक जीवन को हमने आध्यात्मिक संस्कृति द्वारा लोकोत्तर बनाया है। पश्चिमीय सभ्यता लौकिक है, अतएव वह कला के जीवन के ऊपरी ढाँचे (आकार) को ही देखती है। वहीं इसी अर्थ में कला ‘कला के लिए’ है। किंतु हम सुंदरम् के स्थूल ढाँचे में सूक्ष्म चेतना को देखते हैं, इसीलिए सुंदरम् से पहले सत्यम्-शिवम् कहकर मानो भाष्य कर देते हैं। इस प्रकार हम उस चेतना को ग्रहण करते हैं जिसके द्वारा सौंदर्य साधार एवं अस्तित्वमय है।
हम अपनी संस्कृति में एक कवि हैं, पश्चिम अपनी सभ्यता में एक वैज्ञानिक। स्थूलता (पार्थिवता) के ही रहस्यों में निमग्न रहने के कारण वह निष्प्राण शरीर को भी अपनी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में रखने को तैयार हैं, जब कि हम उसे निस्सार मानकर महाश्मशान को सिपुर्द कर देते हैं। जो हमारा त्याज्य है, वह पश्चिम का ग्राह्य है; इसीलिए वह उसे कब्रों और म्यूज़ियमों में सँजोए हुए हैं। हमारा जो ग्राह्य है, उसे हम सँजोते हैं काव्य में, संगीत में, चित्र में, मूर्ति में,—व्यक्ति की स्मृति को अर्थात् उसकी अदृश्य चेतना को। हमारे ये चित्र, हमारी ये मूर्तियाँ जड़ता की प्रतिनिधि नहीं; जब हमने शरीर को ही सत्य नहीं माना तब मूर्ति को क्या मानेंगे। हम मूर्ति को ही संपूर्ण ईश्वर नहीं मानते। जब कोई मूर्ति खंडित कर दी जाती है तब हम यह नहीं समझते कि ईश्वर का नाश हो गया, बल्कि उसके बदले दूसरी मूर्ति स्थापित कर देते हैं। हम तो जड़-प्रतीक इसलिए रखते हैं कि हमें यह सांकेतिक सूचना मिलती रहे कि सत्य (चेतना) के न रहने पर जीवन इन प्रतीकों की भाँति ही जड़ हो जाता है। इन प्रतीकों के माध्यम से हम उसी सत्य का, उसी चेतना का आह्वान करते हैं।
हम व्यक्ति को नहीं, बल्कि व्यक्ति के भीतर बहते हुए रस को महत्त्व देते आए हैं; इसीलिए हमारे यहाँ एक-एक पौराणिक व्यक्ति एक-एक रस के आलंबन-स्वरूप ग्रहण किए गए हैं। दुर्भिक्ष-पीड़ित सुदामा करुणा के प्रतिनिधि, राधाकृष्ण प्रीति के प्रतिनिधि, सीताराम भक्ति के प्रतिनिधि हैं। इन तथा अन्यान्य रूपों में हमने व्यक्तियों का चित्र नहीं बनाया, बल्कि व्यक्तियों के अन्यतम प्रतिनिधियों का रस-चित्र बनाया है। उन चित्रों के साथ एक-एक आख्यान जुड़े हुए हैं, मानो प्रत्येक चित्र एक-एक मूक खंडकाव्य हो।
हमारे काव्य में जो आलंबन-मात्र है, विज्ञान के लिए वह आलंबन ही संपूर्ण लक्ष्य है। विज्ञान अपने अनुसंधानों से प्राणिशास्त्र को जानता है, जब कि हम रसों के भीतर से हृदय का अनुसंधान करते आए हैं। हम विज्ञान को अपने लौकिक अस्तित्व के लिए ग्रहण करते हैं, ज्ञान को आत्मबोध के लिए, रस को आत्मीयता के लिए। इन सभी आदानों में भारत का दृष्टिकोण कला का सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् ही हैं।
(तीन)
मध्यकाल की हिंदी कविता, जिसमें राधाकृष्ण और सीता-राम की झाँकियाँ हैं, वह गृहस्थों के नश्वर जीवन में अविनश्वर का साहचर्य है; सृष्टि के लिए मानो अपने कलाधर का संरक्षण है। हम मिट्टी की जीवित प्रतिमाएँ अपने प्रतिमाकार को अपने ही जैसे रूप-रंगों में प्रत्यक्ष कर अपनी अगणित चेतनाओं को उसमें पुंजीभूत कर उसके महान् अस्तित्व से जीवन-यात्रा के लिए शक्ति और स्फूर्ति ग्रहण करती है। जिसमें इतनी चेतनाओं का सम्मिलन है, जिसमें सौ-सौ सजीव विश्वासों का केंद्रीकरण है, वह प्रभु निरा निर्जीव कल्पना मात्र कैसे कहा जा सकता है। अगणित कलकंठो से चैतन्य होकर जब शून्य आकाश भी सजीव प्रतिध्वनि देता है, तब वह निर्गुण अपनी अगणित आत्माओं से शोभा-समाविष्ट होकर क्यों न सगुण हो जाएगा? हम तार्किक नहीं, विश्वासी है। आध्यात्मिक और दार्शनिक अनुभव हमारे धार्मिक विश्वासों के मूल आधार हैं। हम सत्य को कुरेद-कुरेदकर नहीं देखते। कुरेद-कुरेदकर देखने पर सत्य को क्षत-विक्षत कर देने पर तार्किक जिसे अंत में कुरूप बनाकर पाएँगे, उसे हम रूपवान् बने रहने देने के लिए विश्वासपूर्वक ही अपने हृदय-मंदिर में आराध लेते हैं।
धार्मिक विश्वासों का क्षेत्र वह है जिसमें बुद्धि और तर्क प्रवेश करने का प्रयत्न तो करते हैं, किंतु जितना ही प्रयत्न करते हैं, उतना ही असफल रहते हैं। इससे धार्मिक विश्वासों की निराधारता नहीं, बल्कि बुद्धि और तर्क की ही अक्षमता सिद्ध होती है। ईश्वर के अस्तित्व का एकमात्र निश्चित प्रमाण हमारी चेतना में ही विद्यमान है। हमारे अस्तित्व का मूल तत्व, हमारे अंतरतम की रहस्यपूर्ण निधि जो अपने को ‘हम’ कहती है, वह ईश्वर की ही साँस है। वही पूर्ण पुरुष अपने को मनुष्य में अवतरित करता है।
यह तो विज्ञान और वैज्ञानिक तरीकों के बिल्कुल विपरीत होगा कि हम उन उभी बातों को ठीक न मानकर अस्वीकृत कर दें जिनकी हम टेस्टट्यूब में एसिड की सहायता से जाँच न कर सकते हों। अपनी सूक्ष्मतम उन्नतियों के बाद विज्ञान भी वहीं पहुँचेगा जहाँ धार्मिक विश्वास पहुँच चुके हैं। इस प्रकार विज्ञान अध्यात्म के लिए एक आनुसांधानिक कोष बन जाएगा। आज भी स्वर्गीय बोस ने पौधों और वृक्षों में चेतना का जो अन्वेषण कर दिया है उससे सृष्टि की एकात्मता का आध्यात्मिक सत्य सिद्ध होता है। वैज्ञानिक आइन्स्टीन भी अपनी कल्पना में एक ईश्वर का अस्तित्व पाता है।
हाँ, विश्वबोध-द्वारा जो ईश्वर-दर्शन होता है वह जीवन को कल्याणमय बनाता है, किंतु जो केवल लकीर पीटने के लिए ही ईश्वरवादी है उनके द्वारा समाज में ढोंग और पापाचार फैलता है। समाजवादी इसी विडंबना को देखकर ईश्वर-विमुख हो गए। जो विडंबनापूर्ण है वे तो नश्वर हैं, वे अविनश्वर को क्या जानें। अविनश्वर को जानना सहज नहीं, इसीलिए नश्वर और अविनश्वर के बीच ईश्वर की प्रतिष्ठापना की गई, अर्थात् विश्व के सौंदर्य और ऐश्वर्य्य के बीच एक श्रेष्ठ आदर्श उपस्थित किया गया। मनुष्य न तो नश्वर हो जाए और न अविनश्वर, बल्कि भोग-योग के संतुलन से प्राप्त जीवन का रस ग्रहण करे; इसी हेतु ईश्वरवाद है।
सृष्टि का वह एक आदिम युग था, जब प्राणिमात्र गहनतम अंधकार में था। दूर अलक्ष्य की बात तो दूर, हम स्वयं अपने लिए ही एक विस्मय थे, हमें अपनी ही प्रत्यक्षता पर संशय था। उस विस्मय और संशय के वायुमंडल में हमने तर्क के तीर चलाए। तर्काघात से पीड़ित होकर हम आत्मोपचार के लिए सहयोग की खोज में निकले। इच्छा हुई, कोई हमें सहला दे, कोई हमारे आँसुओं को समझे। इन्हीं कोमल आकांक्षाओं ने समाज बनाया। सामाजिक रूप में ही भारत ने इस सत्य को जाना—‘एकोऽहं बहु स्याम।’ हमने अपनी प्रत्यक्षता पर विश्वास करके ही जाना कि जैसे हम अनेक हैं, वैसे ही हमसे परे कोई एक भी है। यह विश्वास ही हमारा स्वभाव बन गया, हमारा स्वभाव ही काव्य बन गया।
जहाँ तर्क है, वहाँ संशय और अविश्वास है। आज जो कुछ विश्वासरूप में शेष रह गया है, वह अनेक तर्कों और अनेक संशयों के लोक-मंथन से प्राप्त कौस्तुभ मणि है। वह हमें फूलों और नक्षत्रों की भाँति सुलभ हुआ है, वह हमारे रूखे-सूखे जीवन को नंदन-वन बनाने के लिए है।
मनुष्य ने अपने निरंतर के विकास से जो जीवनाधार पाया, वह तर्क नहीं, भाव है। तर्क जड़युग की वस्तु है, भाव विकसित मानव युग का सत्य। भाव के क्षेत्र में यदि तर्क अपने को आधुनिक युग का विचारक सिद्ध करे तो यह उसका अधिकार और अत्याचार होगा, अंधकार का प्रकाश पर आक्रमण होगा। संसार में जहाँ जो कुछ भी भाव है, काव्य है, विश्वास है, वहाँ तर्क की गुंजाइश नहीं। उसका स्थान विज्ञान में हो सकता है, जहाँ एक अंधकार को पार करते न करते दूसरा अंधकार घटाटोप-समस्या बनकर अमावस्या के अंध आकाश की भाँति अछोर फैला रहता है। आर्य भारत ने अपना स्वभाव, अपना विश्वास विज्ञान की समस्त सीमाओं को पार कर ज्वलंत किया है। भारत तार्किक नहीं, चिरजिज्ञासु है। विज्ञान की तर्क दृष्टि आकाश के कुहू-अंधकार पर पड़ी, भारत के जिज्ञासु नेत्रों ने कहा—अंधकार तो है, माया की सघनछाया तो है, किंतु इन उडुगणों में किसके अंतर्लोचन जगमगा रहे हैं?
न जाने नक्षत्रों से कौन
निमंत्रण देता मुझको मौन?
इस माया में कौन चेतन जाग रहा है? भारत की जिज्ञासा चिर-सजगता की ओर बढ़ी, उसने अमावस्या के कुहू के बाद शरद का पूनो देखा, मानो अपने हँसते हुए सच्चिदानंद के स्वर्ग को देखा! उसने विज्ञान से ऊपर उठकर उसी स्वर्ग में गृहस्थ होकर विहार किया। उसने विहार किया, विलास नहीं; वह जगा रहा, सोया नहीं। जब-जब उसने अलसा कर सोना चाहा, तब-तब उसके कवियों ने उसे जगाया। भारत ने आत्मजागृति प्राची के उस स्वर्णप्रभात में भारत ने जन्म-जन्म का तत्त्व पा लिया था, उसी ब्रह्ममुहर्त में उसने जीवन को जान लिया था, और ज्ञान के सर्वोच्च शिखर से यह कामना की थी—‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’
(चार)
आर्य भारत अपने ज्योतिर्मय से आलोकित इहलोक में जीवन का खेल खेलता है। कृष्ण ने आँखमिचौनी खेलकर बतला दिया है कि देखो, खिलाड़ी ऐसे खेलते हैं—प्रेम में वे मोहासक्त हैं, कर्त्तव्य में निर्मोही हैं। वे निर्मम ममतालु हैं, वे प्रेमी-जोगी हैं। भारत इसी आदर्श के चरणों में अपने समस्त जीवन का पादार्ध्य देकर, ‘कृष्णार्पणमस्तु’ कहकर विश्वक्रीड़ा करता है। हम आर्य्यगृहस्थ मानो यह कहते हैं—भगवन्, तुमने न जाने हमारे किस भाव से रीझकर यह क्रीड़ामय जीवन पुरस्कृत किया है। लो हम खेलते हैं, लेकिन अपनी इस लौकिक क्रीड़ा पर हम दंभ नहीं करेंगे, जब हमारे खेल का समय हो जाएगा तब हम तुम्हारे ही उन चरणों में लौट आएँगे जिनकी स्मृति हमारे प्रत्येक क्रिया-कलाप के साथ है—
त्वया हृषीकेश हृदिस्थितेन
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।
उन्हीं श्री चरणों में हम अपना अंतिम जीवन समर्पित करते हुए कहेंगे—लो भगवन्, अब तो खेल समाप्त हुआ, लो अपनी थाती सँभालो—त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये। गोविंद, तुम्हारी वस्तु तुम्हीं को!
गोविंद की यह पूजा वही कर सकता है जो चेतन को मानता है, न कि चेतन के पार्थिव नीड़ (शरीर) को। शरीर तो हमारी अनंत यात्रा का एक जंगम-निवास है, इसके प्रति बिछोह का भाव रखने से हमारे जीवन में एक दार्शनिक जागरुकता बनी रहती है। शरीर के प्रति बिछोह बनाए रखने में भी हमारी संस्कृति हमें सहायता देती है। आर्य-भारत पुनर्जन्म का विश्वासी है, इसीलिए वह अनंत की ओर अग्रसर होने में जन्म-जन्म का आशावादी है। प्राणी जब तक वीतराग नहीं हो जाता तब तक वह जीवन को प्यार करता है। उसका आशावाद उसकी जीवनी शक्ति के कारण है। जिस लौकिक जीवन में उसने एक बार रस पाया उस रस को वह मचले हुए बालक की तरह बार-बार प्रभु से चाहता है। उसके इस रस-लोभ से ही उसका पुनर्जन्म होता है। प्रभु ने सदय होकर उसे पुनर्जन्म का वरदान दिया है, मानो उसका यह स्वस्तिवचन है—ले भाई, जब तेरा जी भर जाए तभी जीवन्मुक्ति माँगना। अंत में लौकिक रास-रंग से ऊब जाने पर जीव ब्रह्म से बिलख पड़ता है—
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल!
इस क्रंदन को सुनकर वह करुणानिधि केशव, जीव को जीवन्मुक्त कर देता है। इस प्रकार हमने जीवन को यूरोप की भाँति एक संग्राम नहीं, क्रीड़ा माना है। इसी कारण हमारे जीवन में मनोरमता और कविता है।
हमारे प्रभु की झाँकी अर्द्धनारीश्वर की झाँकी है, पुरुष और प्रकृति के सयुंक्त व्यक्तित्व से पूर्ण होकर वह अपनी लोक-लीला का विस्तार करता है। अपनी दाम्पत्यिक इकाई से हम प्रभु की ही लीला का प्रसार करते हैं, इसीलिए हम वैष्णव हैं। वैष्णव भारत अपनी गृहस्थी में एक ओर तो प्रेमी है, दूसरी और सेवक। प्रेमी के रूप में हम पारिवारिक प्राणी है, अतिथि-सेवी के रूप में लोक-संग्रही। कृष्ण-काव्य और राम-काव्य ने हमारे इसी द्विविध जीवन को व्यक्त किया है। कृष्ण-काव्य ने हमें दांपत्य प्रेम दिया है, राम-काव्य ने विश्वप्रेम।
अंतत: गार्हस्थिक जीवन ही हमारा सर्वस्व नहीं है, हमारा सर्वस्व है विश्वजीवन। गार्हस्थिक सरिताओं के रूप में हम उसी विश्वजीवन के समुद्र की ओर अग्रसर होते रहते हैं। सामाजिक असामंजस्य से जब संसार का एक प्राणी रास-रंग करता है और दूसरा आठ-आठ आँसू रोता है, तब हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि हमने गार्हस्थिक जीवन में जो सुख-दुख पाया है उसकी अनुभूति में दूसरों के सुख-दुख को भी समझ, दूसरों के सुख-दुख में हाथ बँटावे। गीता के अनुसार—
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुख वा यदि वा दुःखं सयोगी परमो मतः॥
हम अपने ही रास-रंग में संकीर्ण और अनुदार न हो जाएँ; यही लोकसंग्रह का पथ है। जो अपनी ही स्वार्थ-पूजा में व्यस्त है, वह वैष्णव नहीं। वैष्णव अपने सच्चिदानंद के आनंद को प्रभु के प्रसाद की तरह बाँटकर ग्रहण करता है। वह लोभी नहीं, संवेदनशील होता है, वह पशु नहीं, मनुष्य बनता है। जो मनुष्य है, वही वैष्णव है—
वैष्णव जन तो तेने कहिए
जो पीर पराई जाणे रे,
परदुःख उपकार करे
तोए मन अभिमान न आणे रे!
निर्गुण कबीर ने, जिसने समस्त लोकलीला को मिथ्या कहा है, उसने भी जीवन में संवेदना को ही लौकिक तत्त्वो में सर्वोत्तम तत्त्व माना है—
मुखड़ा का देखत दरपन में
तोरे दया-धरम नहि मन में
इस प्रकार उसने रूप-रंग को छोड़ देने पर भी वैष्णव जीवन के सार को ग्रहण किया।
जहाँ शोषक और शोषित के प्रसंग में मनुष्यता के लिए हृदय जगता है, हृदय का वह जागरण ही एक धर्म है। उस धर्म का रसोद्रेक करुण काव्य है। किसी मज़हब को न मानते हुए भी हम सहानुभूति की भूमि (हृदय) में धार्मिक (समष्टि-वादी) रह सकते हैं। आज हमारी वह भूमि खो गई है, हमें उसे पाना है—साहित्य और समाज की नवचैतन्य अभिव्यक्तियों द्वारा।
हमारे काव्य-साहित्य में सच्चिदानंद का करुणामय स्वरूप ही लोक-संग्रह का परमात्म रूप है। जब कोई संप्रदाय अपने प्रभु के करुणमुख दुखियों को सुखी कर उनमें अपने सच्चिदानंद की झाँकी नहीं उतारता, तब सच्चे वैष्णव मानवता की पुकार सुनाते हैं। इस युग के सर्वश्रेष्ठ वैष्णव बापू वही पुकार सुना रहे हैं।
(पाँच)
वैष्णवकाव्य रहस्यवादमय है। रहस्यवाद दो प्रकार का है—एक पार्थिव, दूसरा अपार्थिव। सगुणोपासक कवि पार्थिव रहस्यवादी है, दूसरे शब्दों में इन्हें हम छायावादी कह सकते हैं, जो कि सृष्टि के कण-कण, तृण-तृण को इसलिए प्यार करते हैं कि उनमें उन्हें अंतर्चेतन की अनुरागिनी छाया मिलती है। ये जीवन के एक मिस्टिक रियलिज़्म (रहस्यवादी यथार्थवाद) के कवि हैं।
सगुण-काव्य में पार्थिव भावों के अवगुंठन से अपार्थिव सत्य का सौंदर्य जगमगा रहा है। इस अवगुंठित आध्यात्मिकता के कारण हमारे जीवन की भाँति ही सगुण-काव्य में भी एक कलाछवि आ गई है। गृहस्थों तक पहुँचने के लिए उन्हीं के बानक में सगुण-काव्य को स्वरूप मिला है। ‘खग जाने खग ही की भाखा’ के अनुसार वे उस काव्य को ग्रहण कर लेते हैं। किंतु अपार्थिव रहस्यवाद भावुक गृहस्थी की चीज़ नहीं, वह ज्ञानियों की चीज़ है। वह गृहस्थों के कवि की नहीं, संतों की बानी है। संतों ने अपनी बानी में कला के रूप-रंग को नहीं ग्रहण किया, वे केवल सत्य या सत्त को ग्रहण कर संत हो गए। इस प्रकार आध्यात्मिक चेतना के प्रकाशन के लिए हमारे भक्ति काव्य में एक ओर निर्गुण मिस्टिसिज़्म है, दूसरी ओर सगुण-मिस्टिसिज़्म। सगुण-रहस्यवाद (छायावाद) में प्रेम और भक्ति है, निर्गुण-रहस्यवाद में केवल भगवद्भक्ति। एक में लौकिकता और अलौकिकता दोनों है, दूसरे में केवल अलौकिकता।
तुलसीदास का छायावाद तथा निर्गुण संतों का रहस्यवाद कृष्ण-काव्य की प्रतिक्रिया-सा है। लौकिक तृष्णाओं के लिए ही जब कृष्ण-काव्य का दुरुपयोग होने लगा तथा गृहस्थों ने माधुर्य्य भाव को ही प्रधानता देकर लोक-धर्म को बहा दिया, तब उन्हें चैतन्य करने के लिए तुलसी ने राम-काव्य द्वारा प्रभु के लोकसंग्रही-स्वरूप का दर्शन कराया। उन्होंने गार्हस्थिक जीवन की कदर्थना देखकर गार्हस्थिक जीवन की उपेक्षा नहीं की, बल्कि लोकसेवी और त्याग-परायण गृहस्थ के रूप में सीताराम को उपस्थित कर हमारे लौकिक जीवन का संशोधन किया। किंतु निर्गुण संतों ने गृहस्थ जीवन की कदर्थना में माया का अविचार ही अविचार देखा। उन्होंने उसके संशोधन का नहीं, बल्कि मूलोच्छेदन का ही उपाय किया। गृहस्थों ने उनके साहित्य को उतना नहीं अपनाया, जितना तुलसी की रामायण को। संतों में कबीर और नानक इत्यादि ने गृहस्थों की भी प्रीति प्राप्त करने का प्रयत्न किया और गृहस्थों के दांपत्य भाव में माया और जीव का रूपक बाँधकर उन्हें मायातीत होने का संदेश दिया। किंतु वे जितने वैदांतिक थे, उतने मनोवैज्ञानिक नहीं। सूर ने ‘भ्रमर गीत’ में गृहस्थों के मनोवैज्ञानिक घात-प्रतिघात दिखलाकर उनकी सौंदर्य-लालसा को ऊधों के तर्कवाद पर विजयी बना दिया था। ठीक ऊधों की भाँति निर्गुण भी उदासी हो गए थे। किंतु तुलसी ने गोपियों की विजय स्वीकार की। उन्होंने राधाकृष्ण को सीताराम के रूप में अपनाया। राधाकृष्ण के रूप में ही क्यों नहीं? कृष्ण-काव्य का दुरुपयोग वे देख चुके थे। तुलसी और निर्गुणों का लक्ष्य एक ही था अर्थात् जीवन में परमचेतन की अनुभूति, आत्मा द्वारा एकमात्र परमात्मा की प्रीति। किंतु कृष्ण-काव्य के दुरुपयोग के साथ ही तुलसी निर्गुणों की वैदांतिक विफलता भी देख चुके थे, अतएव कृष्ण-काव्य की भाँति उन्हें भी मनोवैज्ञानिकता द्वारा ही अपने निर्गुण लक्ष्य को सगुण रूप देना पड़ा, यद्यपि उनका उद्देश्य कृष्ण-काव्य से भिन्न था। कृष्ण की त्रिभंगी की गार्हस्थिक जीवन की मनोहरता के लिए उन्हें प्रीतिकर तो थी—
कहा कहूँ छवि आज की ख़ूब बने हो नाथ!
किंतु—
तुलसी मस्तक तब नवै धनुष-बान लेह हाथ॥
देश-काल के जिस वातावरण में लोक-संग्रह का आदर्श वे उपस्थित करना चाहते थे, उसके लिए उनके प्रभु को धनुष-बान हाथ में लेना आवश्यक था। कृष्ण-काव्य की अपेक्षा राम-काव्य में तुलसी ने जिस विशाल क्षेत्र को अपनाया, उसी के अनुरूप उस काव्य के लिए विशद मनोवैज्ञानिकता और प्रशस्त कलात्मकता की उन्हें रससिद्धि करनी पड़ी। मनोवैज्ञानिकता ने उनके काव्य को विश्वस्त बनाया, कलात्मकता ने उनके काव्य को मनोरमतापूर्वक मर्मस्थ किया।
(छ:)
जैसा कि निवेदन किया है, तुलसी और निर्गुणों का लक्ष्य एक था, किंतु तुलसी का कर्ममय होकर, निर्गुणों का ज्ञानमय होकर। कृष्ण-काव्य के भीतर जो अद्वैतवादी वैष्णव थे, यथा नंददास इत्यादि, उन्होंने भी अपने निर्गुण-प्रसंग में गीता के कर्मयोग का संकेत किया था। हाँ तो, तुलसी कर्मयोग के कवि थे, निर्गुण ज्ञानयोग के संत। ज्ञानयोग के प्रति राम-काव्य की उपेक्षा नहीं थी, माधुर्यभाव प्रधान कृष्ण काव्य की थी। तुलसी के हृदय में उन ज्ञानयोगियों के लिए सम्मान था, जिन्होंने बिना लौकिक माया में फँसे ही परमतत्त्व पा लिया था। इसीलिए उन्होंने अपने प्रभु के मुख से कहलाया है—
‘ज्ञानी मोहिं विशेष पियारा।’
किंतु वे उस परमतत्त्व को ज्ञानियों तक ही सीमित न रखकर, सांसारिकों तक पहुँचाना चाहते थे। वे महाकवि थे, उनकी कला रुचि ने जीवन को केवल एक जीवित-श्मशान के रूप में ही देखना नहीं पसंद किया। महाश्मशान (महानिर्गुण) जीवन के जिन अनेक परिच्छेदों का अंतिम परिच्छेद है, तुलसी के नाटकीय और औपन्यासिक कलाकार ने उन पूर्व परिच्छेदों को भी ललककर देखा। उन्होंने जीवन को अयोध्या के राजप्रासाद में, जनकपुर की फुलवारी में, चित्रकूट की वनस्थली में, केवट की नाव में, शबरी के जूठे बेर में, लंका के महायुद्ध में देखा। इन परिच्छेदों के अस्तित्व पर ही अंतिम परिच्छेद (श्मशान) का सूक्ष्म सत्य या सत्त अवलंबित हैं। वह सार इसी संसार का नवनीत है, वह रस यहीं के शूल-फूलों का निचोड़ हैं। यदि कर्म-फल नहीं तो प्रेम का फूल कहाँ, यदि फूल नहीं तो अभ्यंतर का रस कहाँ। अतएव रस के लिए संपूर्ण लौकिक उपादानी का संचयन भी आवश्यक है जनक की तरह विदेह होकर, जिन्होंने आत्मा के रस को—
‘भोग-योग-महं राजहि गोई।’
यह उसी के लिए संभव है जो ज्ञानी और कर्मयोगी दोनों हो। तुलसीदास ने अपने राम-काव्य में ज्ञानयोग को ही कर्मयोग में मूर्त्त किया था। ज्ञान के आधार के लिए उन्होंने कर्म को लौकिक स्वरूप दिया था—
कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करे सो तस फल चाखा॥
साथ ही वे ईश्वरवादी भी थे, इसीलिए उन्होंने यह भी कहा—
को करि तर्क बढ़ावहि शाखा।
होइहै वही जो राम रचि राखा॥
मनुष्य विश्वासपूर्वक, तर्क-रहित होकर कर्म करे, फल की चिंता न करे, फलाफल की चिंता प्रभु की वस्तु है—
मोर सुधारहिं सो सब भाँती।
जासु कृपा नहिं कृपा अघाती॥
इस प्रकार गीता का विवेकसंयुक्त विश्वासधीर निष्कामकर्म अथवा अनासक्त योग तुलसीदास के राम-काव्य का लक्ष्य था। उसी वैष्णवीय विश्वास से मंगलमय अनासक्त योग के जीवित-उदाहरण हमारे पूज्यचरण बापू हैं, जिन्होंने ज्ञानयोग को अपने राष्ट्रीय कर्म-योग में एक स्वरूप दे दिया है।
विश्वजीवन के महाभारत में एक दिन भारत ही अपनी इसी संस्कृति को लेकर पुन: दिग्विजयी होगा। इस वैज्ञानिक युग में, इस जड़-प्रतियोगिता के दुष्काल में, यदि किसी को संसार का सर्वश्रेष्ठ पुरुष उत्पन्न करने का श्रेय है तो इसी भारत को और वह महापुरुष है हमारा बापू। भौतिक सभ्यताओं की भीड़ में से निकलकर अपनी लकुटिया से पथ-संधान करते हुए, वह भारत की ओर लौटा जा रहा है, साथियों को भी उसी ओर लौटा रहा है। वह भारत के जीवन में राम-काव्य को जगा रहा है। भारतीय संस्कृति के उस महा-वैतालिक का संदेश हमें नतमस्तक शिरोधार्य्य है। किंतु हम नतमस्तक होकर उससे सौंदर्य-कला की भी भीख (अनुमति) माँग लेंगे, जैसे हमने प्रभु से यह जीवन माँगा है। हम कहेंगे—बापू, हम तुम्हारे राम-काव्य के आध्यात्मिक समुद्र में कृष्ण-काव्य की एक गार्हस्थिक स्नेह-सरिता होकर आना चाहते हैं।
(सात)
कृष्ण-काव्य मानव-जीवन का भावयोग है। ज्ञानयोग और कर्मयोग की भाँति ही यह भी एक दिव्य योग है। तुलसी ने ज्ञानयोग और कर्मयोग में इसी भावयोग का योग देकर योगियों की संपत्ति (राम-चरित्र) को गृहस्थों के उपयोग के लिए भी सुलभ किया था, क्योंकि वे एक समन्वयकार भक्त कलावान् थे। ज्ञानयोग, कर्मयोग और भावयोग ही क्रमश: सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् हैं। कृष्ण-काव्य और वर्तमान छायावाद की कविता में केवल सुंदरम् है। वर्तमान छायावाद में राधाकृष्ण या सीताराम नहीं है, किंतु वहीं माधुर्य अनाम रूप से हैं। छायावाद ने सत्यम्-शिवम् की अवहेलना नहीं की है, बल्कि उन्हे सुंदरम् में ही रसमय कर दिया है, मानसिक सुधा को पार्थिव प्यालों में ही ग्रहण किया है। निर्गुण ने जिसे चेतना-मय किया, सगुण ने जिसे मानव-मय किया, आधुनिक छायावाद ने उसे प्रकृति-मय किया। निर्गुण की चेतना को, सगुण की प्रीति-प्रतीति को, उसने विश्व-प्रकृति में सजीव किया। सूफ़ियों ने भी यही किया था, किंतु जीवन को वीतराग करने के लिए, जब कि छायावादी जीवन के प्रति अनुरागी भी हैं; एक लोक-रहित लौकिक हैं, सामाजिक जगत् में एक आंतरिक समाज के स्रष्टा हैं। सूफ़ी रहस्यवाद निर्गुणवाद का ही माधुर्य रूप था, वह निर्गुण का परिष्कार था। उसी प्रकार वर्तमान छायावाद सगुण का परिष्कार है। दोनों परिष्कार रोमांटिक हैं।
मध्यकाल में कृष्ण-काव्य का जो दुरुपयोग हुआ था उसका कारण यह है कि सौंदर्य और प्रेम अत्यंत ऐंद्रिक हो गए थे। विजातीय पराधीनता में जिस प्रकार हमारी संस्कृति संकुचित हो गई थी, उसी प्रकार हमारे गृहस्थों की मनोवृत्ति भी। खाना-पीना, मौज करना, जीवन का यही रंगीन रूप शेष रह गया था। मनुष्य और प्रकृति का सार्वजनिक जगत् (विस्तृत मनोराज्य) विदेशी सल्तनत (भौतिक ऐश्वर्य) की ओट में बोझल हो गया था। विदेशी सल्तनत ने अपनी जिस कला की छाप हमारी कला पर डाली, वह कला ऐंद्रिक थी। शृंगारी कवियों ने उस कला को उस तर्जेअदा को अपनाया, किंतु युगों के आर्य्य शोणित ने उस पर राधाकृष्ण का धूप-छाही रंग चढ़ाए रखा। साहित्य में पौराणिक संकेत से हमारी सामाजिक संस्कृति को सूर और तुलसी ने जिस लगन से जगाया, उसी का यह सुफल था कि ऐंद्रिक कला के वातावरण में रहते हुए भी शृंगारिक कवियों ने राधाकृष्ण का स्मरण बनाए रखा जब कि सूर और तुलसी अपने विरक्त और भक्त रूप में विजातीय समाजतंत्र के प्रभाव से अपने को अलग रखकर ही हमारे साहित्य में वैष्णव-कला का विशद कवित्व दे सके।
मध्ययुग में दांपत्य भाव संकट में पढ़ गया था। विजातीय संस्कृति अपने सद्गुणों के साथ ही अपनी विलासिता भी ले आई थी। हमारे यहाँ दांपत्य का जो सती आदर्श था, विजातीय रीति-नीति उससे भिन्न थी, उसमें मानवी स्खलन के लिए विशेष नियंत्रण न था। नृपतियों की विलासिता के कारण जनसाधारण के लिए निश्चिंत गार्हस्थिक जीवन दुर्लभ था। फलतः वैष्णव गृहस्थों को जो दांपत्यिक भूख थी वह शृंगारी कवियों की राधाकृष्ण-मूलक कविताओं में प्रकट हुई। राधाकृष्ण की झाँकियों ने हमारे सामाजिक जीवन में विजातीय रीति-नीति की बाढ़ को नवीन युग आने तक मिट्टी के बाँध (शारीरिक सौंदर्य) से रोका। तत्कालीन वेश-भूषा की भाँति उन्होंने अपने काव्य में भी कुछ कलाविन्यास शासक जाति से लिए, किंतु आत्मा (संस्कृति) यथाशक्ति अपनी ही रखी। हम तो अपने उन कवियों को बधाई ही देंगे कि उन्होंने अपनी कविता को सर्वांशतः विजातीय ही नहीं बना डाला, बल्कि गृहस्थों के हृदय में राधाकृष्ण की प्रेम-प्रतिमा हनुमान् के हृदय में राम की मूर्ति की भाँति स्थापित कर रखी। उनकी कविताओं में जो अतिरंजकता (उत्कट शृंगार) है वह नैतिक न्याय-तुला पर तौलकर नीति-विवेचन की चीज़ नहीं, बल्कि वह कला और इतिहास-विवेचन की चीज़ है। सूर और तुलसी की भाँति यदि उन्होंने भी कोई दार्शनिक सत्य प्रकट किया होता तो उसका नैतिक विवेचन भी हो सकता था, किंतु जो उनका क्षेत्र नहीं, उन्हें उस क्षेत्र में रखकर देखना गुलाब को सरोवर में देखना है। अतएव, कला की दृष्टि से उनमें जो च्युति दीख पड़े, साहित्यिक सत्य के उद्घाटन के लिए उसी का विवेचन होना चाहिए। अश्लीलता उस युग की वह विकट प्यास है, जिससे विजातीय परिस्थितियों के कारण हिंदू दांपत्य भाव का दारिद्र्य प्रकट होता है, अतएव शृंगारिक कवि सहानुभूति के पात्र हैं।
मदिरा से जैसे गला सूख जाता है उसी तरह विलासिता से सामाजिक जीवन सूख गया था। परंतु कविता हमारी पुरातन संपत्ति थी, यही नहीं, हमारी जाति ही कविता की जाति है, इसीलिए सामाजिक जीवन के मरुस्थल में शृंगारिक कवियों ने प्रणय-रचनाओं से ही कुछ सरसता बना रखी थी। रीति-काल में शृंगार रस की प्रधानता का एक कारण यह भी है कि उसके कवि शृंगार को ही रसराज मानते थे। उनके दृष्टिकोण से मतभेद हो सकता है, किंतु उनका कवित्व, जहाँ तक वह रसराज के राज में अराजकता (अश्लीलता) नहीं उत्पन्न करता, सुग्राह्य है।
(आठ)
आज मध्य युग का सम्मोहन दूर हो जाने पर, आधुनिक कवियों ने सूर और तुलसी की भाँती भक्त न होते हुए भी, अपनी मुक्त मानसिकता से सूर और तुलसी को विशद कला को समझा तथा मानवी भावों को जीवन के बहुविध रूप में (केवल दांपत्य रूप में ही नहीं) सामाजिक और प्राकृतिक विस्तार दिया। गुप्त जी ने खड़ी बोली में तुलसी को जगाया, छायावादियों ने सूर, कबीर और मीरा को गुप्त जी और उपाध्याय जी अपनी काव्य-रचना को एक सामाजिक भूमि पर लेकर खड़े हुए, इसीलिए उसमें विविध रूप में लोकनायक सीताराम और राधाकृष्ण हैं, किंतु छायावादी अपनी रचनाओं को लेकर मानसिक भूमि पर खड़े हुए, अतएव उसमें लोक नहीं, लोकाभास है; वस्तुजगत् नहीं, भावजगत् है। इसीलिए दोनों काव्य-समूहों की कला में भी अंतर है। भारतीयता दोनों की ही कला में है, किंतु गुप्त जी और छायावादियों की भारतीयता में महात्मा गाँधी और कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर की भारतीयता का अंतर है।
मनुष्य की तरह साहित्य भी आदान-प्रदान ग्रहण करते हुए चलता है; व्यक्तित्वपूर्ण मनुष्य वीर व्यक्तित्वपूर्ण साहित्य, दोनों अपने आदान-प्रदान में एक आत्म चेतना बनाए रखते हैं। वे अपने को खो नहीं देते, अन्य अनुकरणशील नहीं हो जाते, बल्कि वे अपने पूर्व और वर्तमान युग से अधिकाधिक प्रकाश ग्रहण कर अपने युग को भी स्मरणीय बना जाते हैं। मध्यकाल में सूर और तुलसी ने यह प्रकाश अपने मनोवांछित संस्कृत-साहित्य से ग्रहण किया, इसीलिए उनमें संस्कृत भारत की स्वच्छ संस्कृति है। शृंगारिको ने कृष्ण-काव्य और मुस्लिम भावुकता से रस ग्रहण किया, इस रस-ग्रहण में उनकी आत्मचेतना बहुत सजग न रह सकी, इसीलिए सूर और तुलसी की भाँति उनमें भारतीय संस्कृति शरद्ज्योत्स्ना की भाँति स्वच्छ न होकर एक धुँधली चाँदनी-जैसी है अवश्य।
वर्तमान ही नहीं, किसी भी युग का समाधान अतीत के सांस्कृतिक कोष में भी है, जैसे ‘गीता’ में कल्पांत का सारंश कालावधि से जिस प्रकार मनुष्य का आकार-प्रकार अपने समय का भौगोलिक स्वरूप धारण करता है, उसी प्रकार कला संस्कृति के मूलतंतु को बनाए हुए, देश-काल का रूपरंग ग्रहण करती हैं।
इसी आधार पर मध्ययुग में शृंगारिक कवियों ने मुस्लिम कला से आदान लिया था, आधुनिक युग में छायावादी कवियों न अंग्रेज़ी कला से अंग्रेज़ी कला 20 शताब्दी की विद्युत् की भाँति जगमगाती हुई कला है। किसी भी सजग कला को ग्रहण करने में हमारी संस्कृति उदार है, अपने को खो देने के लिए नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व को सिंधु-विस्तार देने के लिए। अपने में ग्राह्यशक्ति तभी जाती है जब हममें अपनी संस्कृति और कला की क्षमता एक मूलधन के रूप में बनी रहती है। छायावाद के आधुनिक प्रवर्त्तकों ने अपना मूलधन संस्कृत और हिंदी साहित्य से पाया है नवीन शताब्दी के प्रकाश में नवीन वर्णच्छटा से उसी को रूपाभ दिया है।
साहित्य में जब-जब आदान चलेगा, तब-तब उस आदान में अपने मूलधन की ओर संकेत देने के लिए हमारे कुछ पूर्वज कवि हमें अपना सांस्कृति संदेश भी सुनाते रहेंगे। मध्यकाल में सूर और तुलसी ने सांस्कृति संकेत दिया, आधुनिक काल में भारतेंदु जी, गुप्त जी और प्रसाद जी ने भारतेंदु और प्रसाद ने अपने नाटकों में और गुप्त जी ने अपनी कविताओं में। यह अवश्य है कि इन साहित्यिकों का सामाजिक ढाँचा पुराना है, जब कि आवश्यकता हूँ सांस्कृति चेतना धारण करने के लिए नवीन शरीर की भी।
- पुस्तक : संचारिणी (पृष्ठ 1)
- रचनाकार : शांतिप्रिय द्विवेदी
- प्रकाशन : द इंडियन प्रेस लिमिटेड
- संस्करण : 1939
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