शांतिप्रिय द्विवेदी के निबंध
कला में जीवन की अभिव्यक्ति
(एक) समाज की तरह साहित्य में भी लोकोक्तियाँ बनती जा रही है, जिनमें से यह उक्ति प्राय: सुनाई पड़ती है—‘कला कला के लिए।’ इस उक्ति के आधार पर हमारे यहाँ यह धारणा कुछ-कुछ फैल चली है कि दिन-रात के इस हँसते-रोते विश्व से पृथक् कला कोई भिन्न वस्तु हैं, जिसका
कवि का आत्मजगत्
(एक) कविता—इस शब्द का नाम मैंने पहले-पहल कदाचित् सन् 18 में सुना था। तब, देहाती मदरसे के तीसरे या चौथे दर्जे में पढ़ता था। बालक था। ऐसा जान पड़ता है कि मनुष्य के मन के भीतर भी कोई एक स्प्रिंग होती है, वह उसे छुटपन से ही घड़ी की सुई की तरह उस अभीष्ट की
भक्ति-काल की अंतर्चेतना
(एक) हमारा वैष्णव काव्य-साहित्य न दुखांत है, न सुखांत; वह तो प्रशांत है। रामायण को लीजिए। रोमांस और ट्रेजडी के बाद क्या है? सीता का वनवास और राम का राज्याभिषेक; मानो विषाद और हर्ष, अंधकार और प्रकाश की उष:शांति। कृष्ण चरित्र में भी इसी ब्राह्ममुहूर्त्त
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere