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पुरानी डायरी के पन्ने-3

purani Dayri ke panne 3

उपेंद्रनाथ अश्क

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उपेंद्रनाथ अश्क

पुरानी डायरी के पन्ने-3

उपेंद्रनाथ अश्क

और अधिकउपेंद्रनाथ अश्क

    स्नेह और रक्त

    दीवाली की ख़ुशी में धनाधीश ने अपने भवन के तारीक से तारीक कोने को दियों की रोशनी से जगमगा दिया है।

     

    उन दियों के प्रकाश में आशा की वह ज्योति है जो उसके हृदय से निराशा का अँधेरा दूर भगा रही है; एक नशा है जो उसे सरशार कर रहा है;  जादू है जो उसे अपना-आप भुलाए दे रहा है।

     

    उन दियों के प्रकाश में वह अपनी उत्तरोत्तर उन्नति के सपने देख रहा है, इसीलिए उनमें तेल के बदले घी जला रहा है। लेकिन ग़रीब को तेल तो दूर, चिराग़ तक मयस्सर नहीं।

     

    अपनी अँधेरी कोठरी में बैठा वो अपनी आँखों के दिये जला रहा है।

     

    उनके प्रकाश में वह निराशा का अँधेरा देखना है जो उसके दिल में आशा की ज्योति को मंदार किए दे रही है, संघर्ष की विभीषिका देखता है, जिसने उसका सारा नशा, सारी मस्ती हर ली है।

     

    इन दियों की रोशनी में वह अपनी बढ़ी आती भूख और फटे-हाली के भयानक चित्र देख रहा है, इसीलिए इनमें स्नेह के बदले उसके हृदय का रक्त जल रहा है।

     

    10 नवंबर 1931

     

    अमर खोज

    जब पतझड़ का शासन था और बेलों के गहने बयार के निर्दय डाकुओं ने लूट लिए थे, जब पेड़-पौधे अपने नंगेपन को दुःख ओर हसरत भरी निगाहों से तक रहे थे और वन-उपवन में समीर को सुगंधि के बदले पौधों की लंबी—गर्म साँसें ही मिलती थीं—मुझे रूप और प्रेम किसी की खोज में भटकते हुए दिखाई दिए।

     

    उनके कपड़े अस्तव्यस्त थे, बाल बेपरवाही से बिखरे थे, मुख पीत, ओठ शुष्क और उनकी आँखों की मस्ती अस्त हो चुकी थी।

     

    मैंने उनका रास्ता रोक लिया और पूछा—“तुम्हें किस चीज़ की तलाश है?”

     

    “वसंत की”, उन्होंने उत्तर दिया और अपनी खोज में चल पड़े।

     

    जब वसंत का राज था और बेलें फूलों के गहनों से लदी झूले झूल रही थीं, जब पेड़-पौधे अपनी नई भूषा को गर्व की दृष्टि देख रहे थे और वन-उपवन में समीर जी भरकर सुगंध बटोर रही थी—मुझे रूप और प्रेम फिर दिखाई दिए।

     

    उनके केश सुंदरता से गुँथे हुए थे, मुख लाल, ओठ मधु-गीले और नयनों में मस्ती के सागर उमड़ रहे थे, किंतु वे अब भी किसी की खोज में निमग्न थे।

     

    मैंने उन्हें रोक लिया और पूछा—“अब तुम्हें किस चीज़ की तलाश है?”

     

    “अनंत वसंत की”, उन्होंने उत्तर दिया, और फिर अपनी मुहिम पर चल पड़े।

     

    8 फरवरी  1932

    स्रोत :
    • पुस्तक : ज़्यादा अपनी : कम पराई
    • रचनाकार : उपेंद्रनाथ अश्क
    • प्रकाशन : नीलाभ प्रकाशन
    • संस्करण : 1959

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