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भवनिर्वाणे पड़ह मादला

bhavnirvaa.na.e paDah maadala

कण्हपा

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भवनिर्वाणे पड़ह मादला

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    भवनिर्वाणे पड़ह मादला।

    मण-पवण बेणि करंड कसाला॥

    जअ-जअ दुंदुभि साद उछलिला।

    काह डोंबीविवाहे चलिला॥

    डोंबी विवाहिआ अहारिउ जाम।

    जउतुके कि आणुतु धाम॥

    अहणिसि सुरअ पसंगे जा।

    जोइणि जाले रअणि पोहाअ॥

    डोंबीएर संगे जो जोइ रत्तो।

    खणइ छाड़अ सहज उन्मत्तो॥

    संसार में बार-बार जन्मरूपी भाव मुक्तिरूपी निर्वाण, दोनों को परिशोधित कर—इन दोनों की पटह और मादल रूप में कल्पना की गई है। मन और पवन के युक्त प्रवाह की करंडक गृह के रूप में कल्पना की गई है। डोंबी जब अवधूतिका के साथ विवाह करने चले, तब जय-जयकार और दुंदुभि का स्वर गुंजरित होने लगा। डोंबी ने विवाह कर जन्म के—सृजन और विनाश को आहार बनाया और अनुत्तर धर्म का दहेज प्राप्त किया। सुरत-प्रसंग में दिन और रात कटने लगे और योगिनी जाल (ज्ञान रश्मि) द्वारा (अज्ञान) रात्रि समाप्त हुई। डोंबी के संग जो योगी लीन हुए हैं, सहजानंद में उन्मत्त वह योगी एक क्षण मात्र के लिए भी उनका परित्याग नहीं करता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सहज सिद्ध : चर्यागीति विमर्श (पृष्ठ 100)
    • संपादक : रणजीत साहा
    • रचनाकार : कण्हपा
    • प्रकाशन : यश पब्लिकेशन्स
    • संस्करण : 2010

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