पिन-कैप्चा-कोड की दुनिया में पिता के दस्तख़त
अतुल तिवारी
18 जून 2025

लिखने वाले अपनी उँगलियों का हर क़लम के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते। उनके भीतर एक आदर्श क़लम की कल्पना होती है।
हर क़लम का अपना स्वभाव होता है। अपनी बुरी आदतें और कुछ दुर्लभ ख़ूबियाँ भी।
मैंने हमेशा जेल पेन से लिखा। क़लमों की दुनिया में जेल पेन चिकनी ज़ुबान से बोलने वाला राजदूत है। फ़िसलता जाता है, चमकता रहता है। लेकिन स्याही जितनी जल्दी आती है, उतनी ही जल्दी ख़त्म भी हो जाती है। अक्षर अधिक भीगते हैं। हर्फ़ गाढ़े हो जाते हैं।
बॉल पेन में ऐसी कोई उच्छृंखलता नहीं होती। बॉल पेन की दुनिया में ‘सेलो ग्रिपर’ के पास एक संतुलित सौंदर्य था। ‘सेलो ग्रिपर’ से लिखना और दस्तख़त करना दोनों ही पिता को पसंद रहा। इस तमीज़दार क़लम से उन्होंने अनगिनत चिट्ठियाँ, शिकायत-पत्र और आवेदन लिखे। ...और दस्तख़त किए। दस्तख़त करते हुए उनका संसार एक क्षण के लिए स्थिर हो जाता। दस्तख़त शुरू करते हुए जब क़लम की नोक काग़ज़ से टकराती होगी, तब उनके मन में कोई लय तो ज़रूर निकलती होगी। वरना क्यों ही कोई इतने मनोयोग से दस्तख़त करेगा और हर बार पूछेगा कि देखो ठीक लग रहा? कभी-कभार लगता है कि कुछ चिट्ठियाँ उन्होंने सिर्फ़ दस्तख़त करने के लोभ से लिखीं। बचपन में उनके दस्तख़त मुझे डराते थे। अब सहारा देते हैं। अब जब वह बूढ़े हो रहे हैं, तो क्या मैं उनका वर्तमान ठीक से पढ़ पा रहा हूँ?
पिता धीरे-धीरे ओझल नहीं होते। वह धीरे-धीरे पारदर्शी हो जाते हैं। जीवन की हर पटकथा में पिता की उपस्थिति रहती ही है। वह सिर्फ़ स्मृति में नहीं रहते, वह एक स्थायी अनुपस्थिति की तरह भी होते हैं।
कॉलेज के बाद स्टेशनरी की दुकानों से मेरा परिचय कम हो गया। पिता का बना रहा। A-4 साइज़ के काग़ज़ और ‘सेलो ग्रिपर’ और उसकी रिफ़िल के लिए उन्हें हर शहर में किसी स्टेशनरी वाले को दोस्त बनाना ही था। मैंने उन्हें कई बार महँगी क़लम पकड़ाई, लेकिन ‘सेलो ग्रिपर’ से उनका मोह न छूटा। उन्हें ‘सेलो ग्रिपर’ से लिखा गया वाक्य किसी अच्छे दर्ज़ी का सिला हुआ कुर्ता लगता—न टाइट, न ढीला—एकदम पिता के सैनिक-मिज़ाज के मुताबिक़; जिसमें न तो कोई लिप्त मोह होता, न कोई बनावटी दूरी—बस एक सलीक़ा रहता।
बर्थ-सर्टिफ़िकेट बनाने वाले बाबू का दस्तख़त रबर-स्टैम्प जैसा होता है—वह हर काग़ज़ पर बेमन से, एक-सा गिरता है। पिता का दस्तख़त करना, बैंक-कैशियर के दस्तख़त जैसा भी नहीं है जो नोटों के प्रवाह को वैध बनाती है। उनका दस्तख़त—अक्सर दबाव में किए जाने वाले—लेखपाल और अमीन जैसा भी नहीं होता। हेडमास्टर, डाकघर कर्मचारी, मजिस्ट्रेट, अधिवक्ता या विकास-कार्य की मंज़ूरी देने वाले अधिकारियों की तरह कुछ पेशे दस्तख़त-प्रधान होते हैं। मैंने कभी पूछा तो नहीं, लेकिन यदि वह सैनिक नहीं होते तो शायद किसी सरकारी विभाग में दस्तावेज़ सत्यापनकर्ता होते... और यह काम वह ज़रा भी हड़बड़ी में नहीं करते।
आज भी पिता के दस्तख़त की स्थिरता समय से नहीं डरती। ढलती उम्र के बावजूद उसमें अभी एक कोमलता है, जो ज़ाहिर नहीं होती। दरअस्ल, दस्तख़त—रेखाओं को लापरवाही से गोदना नहीं है। वह अभ्यास है।
पिता के दस्तख़त में एक ध्वनि थी, जो किसी को सुनाई नहीं देती—मुझे महसूस होती थी। दस्तख़त उनके लिए अधिकार भी था और क्षमा भी। अब भी वह अपने दस्तख़त को घिसने नहीं देते। वह हर दस्तख़त में एक अलहदा ढंग की पुनरावृत्ति करते हैं। जैसे हर बार वह अपने नाम को फिर से मान्यता देते हों और वक़्त अपनी चाल भूल जाता हो।
पिता का दस्तख़त करना एक क्रिया नहीं, एक क्षणिक समाधि थी।
पिता ने कभी भी दस्तख़त को जल्दी में नहीं किया। “दे दो, साइन कर देता हूँ”—यह तो कभी कहा ही नहीं। बहुत दिनों तक बहुत सख़्ती से उन्होंने मुझे छोटा ‘एफ़’ (f) लिखना सिखाया। यह उनके अनुशासन का ही अतिरेक था, जिसके कारण मैं शॉर्टकट खोजने वाला लड़का बन गया।
नौकरी के बॉन्ड के लिए जब पहली बार मुझे कोई फ़ॉर्म भरना पड़ा, मैंने उनकी नक़ल में वही ‘f’ लिखा। बहुत कोशिश की; पर जैसे वह ‘एफ़’ बनाते हैं, बना नहीं पाया।
पिता मेरी ज़िंदगी से धीरे-धीरे बाहर होते जा रहे हैं। या शायद मैं ही ज़्यादा बाहर हो गया हूँ। नया शहर। नई व्यस्तता। नए टैक्स फ़ॉर्म। नए एग्रीमेंट। नया मकान मालिक। नई दुरूहता। नया ऐप और उदास डिजिटल सिग्नेचर!
पिता आजकल OTP आने पर घबरा जाते हैं। मोबाइल का फ़ॉन्ट छोटा है। हर हफ़्ते बैंक ऐप का पिन भूल जाते हैं। “पासवर्ड कहाँ डालना है?”—पूछते हुए, वह झेंपते हैं। मैं चिढ़ जाता हूँ। फ़ोन रख देता हूँ। देर तक ख़ुद से नज़र नहीं मिला पाता। डिजिटल-सुगमता से पहले बैंक की मैनुअल दुनिया उनके लिए ज़्यादा आसान थी, जहाँ वह बिना पिन-कैप्चा-कोड डाले दस्तख़त से पहचान लेते और पहचान लिए जाते थे।
दस्तख़त पिता के लिए एक ज़िम्मेदारी है। उनकी जीवनी है। उनका टेंपरामेंट और उनकी दुनिया है। इस क्रिया में उनके चेहरे पर एक मासूम मुस्कान आ जाती है।
दस्तख़त करना उन्हें एक अंतराल देता था, इस दौरान पिता बहुत भोले लगते।
मेरे दस्तख़त में कोई राग नहीं है। बस एक अनिवार्यता है।
हाज़िरी-शीट से लेकर, ज़मीन की लिखाई तक, दस्तख़त पिता की दुनिया का एक छोटा-सा चमत्कार था... है।
मैं अब दूर रहता हूँ। दूर रहता हूँ तो मिलना कम होता है। दूर रहता हूँ, इसलिए उन्हें दस्तख़त करते हुए देखना कम हो गया है। स्कूल की छमाही रिज़ल्ट पर मेरा कहना कि इस पर दस्तख़त कर दीजिए, मेरे ख़राब नंबर से बचने का उपाय था। मैं दस्तख़त करने की घूस देकर, उन्हें बेवक़ूफ़ बना ले जाता था।
बीते कुछ सालों से दूर शहर में नौकरी करते हुए पिता से मिलना कम होता गया है। हमारे संवाद जो पहले भी संक्षिप्त थे, अब संक्षिप्ततर हो गए हैं। जाने कैसे पिताओं से फ़ोन पर बात करने ने, ज़रूरी जानकारी देने वाले मौसम-विभाग की सूचनाओं सरीखा शिल्प ले लिया है।
मैं अब पिता के पास नहीं रहता। दूरियों में व्यस्त रहता हूँ। टाइम पर उनके मैसेज का जवाब नहीं दे पाता। अपने में खोया रहता हूँ। लंबी बात नहीं कर पाता। दूर रहता हूँ तो झगड़े नहीं होते। मौन आयर मान-मनौव्वल भी नहीं होता। बीते चार-पाँच साल में साल में कितने नए लोग, नई नौकरियाँ और नई और बुरी आदतें जुड़ गई हैं। कितना कुछ बदल गया है। इतना बदलाव भी ठीक नहीं है। जीवन को पिता के दस्तख़त की तरह होना था, मगर क्यों?
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