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बिंदुघाटी : चेख़व, कहानी और सत्रावसान

• किसी वाक्य में क्रिया है तो विराम भी है। यह न हो तो एक और वाक्य कैसे शुरू हो! क्रियाओं और उनके विरामों के बीच ही तो संसार कितने रूप-जाल रच रहा है!

मलयज याद आते हैं : 

‘‘डूबने से पहले अंतिम बार वहीं
मैं अपने को टटोलता हूँ :
क्या यही है मेरा आरंभ?’’

• कहानी के शिल्प के बारे में चेख़व कहते हैं कि जो कहानी के लिए प्रासंगिक नहीं है, वैसी हर चीज़ को हटा देना चाहिए। अगर कहानी की शुरुआत में कोई बंदूक़ दीवार पर टँगी हुई है तो अंत तक आते-आते उसे चल ही जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह बंदूक़ वहाँ नहीं होनी चाहिए थी। 

हेमिंग्वे के हवाले से कहा जाए तो चेख़व की यह बात कहानी को बहुत अनुशासित करती हुई मालूम पड़ती है। क्या पता बंदूक़ सजावटी उद्देश्य के लिए हो या फिर सिर्फ़ देखते रहने के लिए या कहानी के स्पीकर का बंदूक़ के साथ कुछ असामान्य-सा रिश्ता ही हो। 

हेमिंग्वे के उक्त कथन चेख़व की कथित बंदूक़ की नली में फँस गए प्रतीत होते हैं। चेख़व कहानी में आई किसी दीवार पर दिखने वाले हर विवरण को कहानी के अंत तक विकसित होने की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनका अभिप्राय कुछ यों जान पड़ता है कि कहानी में जिस बात को कहानीकार एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक की तरह शुरू में इस्तेमाल करता है, अगर वह कहानी की यात्रा में कहीं पहले ही छूट गई है तो उसका प्रयोग शुरू में भी नहीं होना चाहिए था।

• चेख़व की तीन कहानियाँ [जिन्हें ‘लिटिल ट्रायोलॉजी’ (एक लघु त्रयी) कहा गया] एक साथ जुड़ी हुईं हैं। ये कहानियाँ हैं—‘द मैन इन अ केस’, ‘गूजबरी’ और ‘अबाउट लव’। इन तीनों कहानियों में तीन पात्र कहानी सुनाते हैं और ये कहानियाँ उनके जीवन से जुड़े किसी पात्र और उनके बारे में होती हैं। 

बर्किन और इवान इवानोविच तीनो कहानी में उपस्थित हैं, जबकि अल्हीन दूसरी कहानी [‘गूजबरी’] में श्रोता के तौर पर दाख़िल होता है और ‘अबाउट लव’ में वही कहानी कहने वाला बन जाता है।

• चेख़व की ‘लिटिल ट्रायोलॉजी’ रूस के उन्नीसवीं सदी के शहरी समाज और ग्रामीण ज़मींदारी के बीच जीवन के ब्योरे दर्ज करती है। इसका विकास शुरू में ही मिल गए किसी बड़े विचार को निगमित करते हुए होता है। इसकी कहानियाँ पृथक तौर पर भी स्वतंत्र कहानियाँ हैं, लेकिन इनके पात्र एक ही हैं और इनकी शिल्प-संरचना भी एक-सी होने के कारण, एक साथ अधिक प्रभाव उपस्थित करती हैं। बड़े लेखकों के जीवन में प्रायः कई चरण आते हैं, जहाँ उनके लेखन में साफ़-साफ़ अपने बदलाव व्यक्त हुए दिखते है। यह ट्रायोलॉजी भी संभवतः चेख़व के लेखन के दूसरे चरण से संबद्ध है। 

•  ‘अबाउट लव’ की शुरुआत में उल्लिखित तीनों ही पात्र पलाजिया नाम की नौकरानी के प्रेम-विषयक चुनावों पर अपनी-अपनी राय देते हैं। इस क्रम में ही अल्हीन यहाँ कहानी सुनाता है, जोकि उसके जीवन की कहानी है। आगे का उद्धरण उसी के हवाले से है : 

‘‘प्रेम के विषय में लिखी या कही गईं बातें निष्कर्ष नहीं हैं; बल्कि ऐसे प्रश्न-कथन हैं,जोकि अनुत्तरित ही रहे आए हैं। किसी एक मामले के लिए उपयुक्त कोई व्याख्या, दर्जनों अन्य मामलों में लागू नहीं होती। इसीलिए जैसे डॉक्टर हर मरीज़ की अलग-अलग जाँच करते हैं, वैसे ही प्रेम की व्याख्या भी केस-दर-केस होनी चाहिए।’’

इसे पढ़ते हुए यह समझ आता है कि कोई भी युग सामान्यीकरणों से रिक्त नहीं रहा है, लेकिन आज जब अभिव्यक्ति अपने तमाम रूपों में महाविस्फोटक हो चुकी है तो सामान्यीकरणों की भी यही दशा है। उनसे बचना संभव नहीं है।

• ‘‘इस आदमी में हमेशा एक उत्तेजना रहती थी कि ख़ुद को एक खोल में लपेटे रखे... कह सकते हैं कि वह अपने को ऐसे संदूक़ में लिए रहना चाहता था, जिससे कि वह बाहरी चीज़ों से अप्रभावित और सुरक्षित रहे।’’

ऊपर दर्ज पंक्तियाँ ‘द मैन इन अ केस’ से हैं। यहाँ बर्किन अपने दोस्त [इवान] से बायलिकोव के बारे में बता रहा है। मानव-व्यवहार विचित्र हो सकता है, लेकिन अस्वाभाविक नहीं; क्योंकि अमानवीय या अप्राकृतिक होना क्या है, इसे तय नहीं किया जा सकता। 

• बौद्धिक कर्मों से जुड़ा आदमी अधिक परिभाषित ढंग के जीवन की माँग करता है और निर्णय देने की जल्दी में होता है। लेकिन कभी उसे भी वैसा इल्हाम हो ही जाता है, जैसा ‘द मैन इन अ केस’ कहानी के अंत की ओर बढ़ते हुए इवान इवानोविच को होता है और वह यह वैचारिक प्रश्न हमारे समक्ष रख छोड़ता है : 

‘‘अपनी तमाम बौद्धिक-वैचारिक दिनचर्याओं के बीच, या किसी अन्य क़िस्म की दिनचर्या के बीच क्या हम सभी ख़ुद को एक संदूक़ में बंद नहीं रखे होते हैं!’’

• ‘‘और उदासी घुल गई—वसंती हवा में, गहराते आसमान में, ट्रेन के उस डब्बे में।’’

यह चेख़व की कहानी ‘द ब्यूटीज़’ का बिल्कुल आख़िरी अवसर है। इस कहानी में एक किशोर की सौंदर्य-अनुभूतियाँ हैं। दो दृश्य—दोनों सफ़र के बीच के ठहराव में। दोनों जगह भोक्ता को  जो सौंदर्य-चेतना हासिल हुई है, उसने ख़ुद को उसी के हवाले कर दिया है। इस बारे में कथा कहती है : 

‘‘यहाँ कोई कामना नहीं थी; कोई आनंद या मनोरंजन भी नहीं था, जोकि माशा ने मुझमें जगाया; अपितु एक तकलीफ़देह, फिर भी मीठी उदासी थी।  यह एक अस्पष्ट, अपरिभाषित उदासी थी—सपने सरीखी।’’

जब AI घर बैठे सब कुछ बना देगा; तब भी ऐंद्रियता की ऐसी अनुभूति किसी सफ़र, उसके किसी ठहराव और किन्हीं किशोर मनों में ही संभव होगी।

• ‘‘जैसे सीप के भीतर बालू पड़ा रह जाता है और उसके विकास का हिस्सा नहीं बन पाता है, वैसे ही उसकी आत्मा में उस चुंबन की खरोंच हमेशा ताज़ा बनी रही। बाकी सब वैसे ही रहा।’’ 

अचानक घटित हुईं सुंदर चीज़ें और अधिक सुंदर हो जाती हैं। चेख़व की ‘द किस’ कहानी के राइबोविच को अचानक मिले चुंबन उसे व्याख्याओं की कचहरी में ख़ाली जेब छोड़ देते हैं। व्याख्याएँ भले ही किसी चोट को बढ़ाने का काम न करें, लेकिन कम से कम उसे ज़िंदा ज़रूर रखती हैं। 

सुंदरता और टीस चिर-संयोजी हैं। राइबोविच के लिए अब कुछ भी ठीक नहीं हो सकता। ग़ालिब कह गए हैं : 

‘‘दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ’’

• ‘‘अगर सामने संसार न होता’’

इसी रौ में अविनाश मिश्र के कविता-संग्रह ‘वक़्त ज़रूरत’ [राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2024] से उपरोक्त पंक्ति उद्धृत करना ज़रूरी जान पड़ा। ज़रूरी उस तरह नहीं, जैसे कि इधर-उधर की वेबसाइटों पर इधर-उधर के कई वर्षों से बुलेटिन की तरह जारी होने वाली कविताओं की बोझिल प्रस्तुतियों में ‘ज़रूरी’ शब्द आता ही जा रहा है। 

यह पंक्ति यहाँ इसलिए ज़रूरी है कि इसमें संसार है... और ‘संसार’ इसीलिए अधिक अर्थवान् है कि वह ठीक सामने ही है। 

मैं अभी समझ रहा हूँ कि संसार है। 

मैं समझ रहा हूँ कि अभी भी संसार है। 

मैं गति में हूँ, संवाद में हूँ, शब्द में हूँ, रूप में हूँ। 

आत्मदया, भय, घृणा... सब घेरते हैं; मैं उनसे भी एक समीकरण में हूँ।

• चेख़व मूल्य-स्थापना के कहानीकार हैं। यह बात प्रेमचंद की अनगिनत शुरुआती कहानियों में भी है। चेख़व की कहानी ‘द बेट’ को कौन चेख़व-प्रेमी नहीं जानता! 

इसमें एक वकील के जीवन के पंद्रह वर्ष उसमें इतना औदात्य भर देते हैं कि वह बैंकर से शर्त में संपत्ति जीतने के बजाय अपनी कमाई निधि—यानी पंद्रह वर्षों का एकांत अध्ययन लेकर चुपचाप चला जाता है और बैंकर को शर्त जितवा देता है।

• प्रायः ‘द बेट’ पर बहस यह होती है कि शर्त कौन जीता! बैंकर से शर्त जीतकर भी उसे शर्त जिता देने वाला वकील या फिर वकील की कृपा पर शर्त जीतकर अपनी संपत्ति पा लेने वाला बैंकर! 

यहाँ अस्ल बात तो यह है कि पंद्रह वर्षों के एकांत अध्ययन से निर्मित मन किसी भी दशा में कुछ करोड़ रुपयों में अपना साकार नहीं देखना चाहेगा। 

मनुष्य को हासिल हुई उच्च-अवस्था अपने तुच्छ कारकों को पसंद नहीं करती है। 

• ‘‘दोनों के समक्ष यह बात साफ़ हो गई थी कि उनके सामने अब भी लंबा सफ़र है और ‘एक शुरुआत भर’ ही इस सफ़र का सबसे पेचीदा और कठिन हिस्सा बनी हुई है।’’

नामवर सिंह कहानी को उसकी समग्र बनावट में देखते हैं। बनावट से उनका अभिप्राय संरचना से होता है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ पर की गई अपनी टिप्पणी में तो वह उसके शीर्षक से ही बेहद चहकते हुए लिखते हैं, ‘‘यह शीर्षक ही कह रहा है कि... क्या कहा था?’’ 

चेख़व की कहानी ‘द लेडी विद द डॉग’ से ऊपर उद्धृत अंश उसकी आख़िरी पंक्तियाँ हैं। ये पंक्तियाँ एक पाठक को अनुमान-सरणियों की ओर प्रशस्त कर रही हैं। 

• नामवर सिंह कहते हैं कि कहानी सिर्फ़ अपने अंत के लिए नहीं होती है। 

• ‘द लेडी विद द डॉग’ भी एक परिपक्व अंत के साथ ही अन्य बहुत से मार्मिक बिंदु प्रस्तुत करती है। इस कहानी में गुरेव और अन्ना का प्रेम सामाजिक दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है। वे दोनों शादीशुदा हैं। दोनों एक तरफ प्रेम की सघन ऊष्मा में तप रहे हैं तो दूसरी तरफ़ अपने-अपने जीवन-साथियों को दे रहे धोखे की ग्लानि में भी हैं। 

यहाँ एक स्थिति में गुरेव अपनी बेटी को स्कूल छोड़ने जा रहा है और उसके बाद उसे अन्ना से भी मिलना है, वह सोचता जाता है :

‘‘उसके पास दो ज़िंदगियाँ थीं—एक जो खुली हुई थी; जिसे सभी देख-जान रहे थे, जोकि मिले-जुले सच और झूठ से बनी थी। वैसी ही जैसी उसके दोस्तों और परिचितों की ज़िंदगियाँ थीं। दूसरी ज़िंदगी वह थी जो चुपचाप, गुप्त रूप से अपने रास्ते पर चल रही थी।’’

• हेनरी जेम्स ‘आर्ट ऑफ फ़िक्शन’ में वाल्टर बेसेंट से बहस करते हुए कहते हैं :

‘‘यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि बिना यथार्थ की समझ के एक अच्छा फ़िक्शन नहीं लिखा जा सकता; फिर वह कौन-सी युक्ति है, जिससे इसे हासिल किया जाए! इस विराट मानवता के पास यथार्थ के अनगिन रूप हैं। अधिक से अधिक यही कह सकते हैं कि कुछ रचनाओं में खिले हुए फूलों में उनकी ख़ुशबू होती है और कुछ में नहीं। पहले से ही यह कैसे कहा जा सकता है कि गुलदस्ते को कैसे सँवारा जाए! वह तो बिल्कुल ही अलग बात है।’’

• संसार एक रंगमंच ही है—सब ओर सजे बहुत से रंगमंचों से बना हुआ—एक विशाल रंगमंच। इस रंगमंच पर हो रहे खेल में कोई एक प्रस्थान नहीं होता, बल्कि आगमन-प्रस्थान होते रहते हैं। यहाँ महाप्रस्थान भी किसी और वृहत्त महाप्रस्थानक योजना के भीतर ही एक छोटा प्रस्थान है। विदा भी ऐसी ही विदा है कि अब तक चल रही कोई स्थिति बस अब परदे खींचना चाह रही है। 

इसके साथ ही अंत में अविनाश मिश्र की ‘वक़्त ज़रूरत’ शीर्षक कविता की पंक्तियाँ... इनके आशय पाइए, मैं कुछ कहकर जा रहा हूँ :

‘‘अंत में यह कहकर विदा हुआ वक्ता— 
वक़्त कम है 
लड़िए आप लोग 
ज़रूरत है 

यों सत्र यह समाप्त हुआ जाता है।’’

•••

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