दिल्ली पर उद्धरण
भारत की राजधानी के रूप
में दिल्ली कविता-प्रसंगों में अपनी उपस्थिति जताती रही है। ‘हुनूज़ दिल्ली दूर अस्त’ के मेटाफ़र के साथ ही देश, सत्ता, राजनीति, महानगरीय संस्कृति, प्रवास संकट जैसे विभिन्न संदर्भों में दिल्ली को एक रूपक और प्रतीक के रूप में बरता गया है। प्रस्तुत चयन दिल्ली के बहाने कही गई कविताओं से किया गया है।

दिल्ली में ग़ुलामों का राज्य है। सबके सब चुग़लख़ोर, चरित्रहीन, क्रूर गँवार। नाश हो जाएगा इस सल्तनत का। गाँठ बाँध लो महाराज, जिस सल्तनत में सबको अपनी-अपनी पड़ी हो, जिसमें बड़े से बड़े को अपना सिर बचाने की ही चिंता पड़ी हो, जिसमें प्रजा के सुख-दुःख से कोई मतलब ही न हो, जिसमें प्रजा के सुख-दुःख से कोई मतलब ही न हो, वह नाश के कगार पर खड़ी है। वे भाग्यहीन डंडे के बल पर राज चाहते हैं। सब नरक के कीड़े बनेंगे।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere