देश पर दोहे
देश और देश-प्रेम कवियों
का प्रिय विषय रहा है। स्वंतत्रता-संग्राम से लेकर देश के स्वतंत्र होने के बाद भी आज तक देश और गणतंत्र को विषय बनाती हुई कविताएँ रचने का सिलसिला जारी है।
कोविड में बहरा हुआ
अंधा बीच बज़ार।
शमशानों में ढूँढ़ता
कहाँ गई सरकार॥
खाल खींचकर भुस भरा
और निचोड़े हाड़।
राजा जी ने देश के
ख़ूब लड़ाए लाड़॥
बसत सदा ता भूमि पै, तीरथ लाख-करोर।
लरत-मरत जहँ बाँकुरे, बिरूझि बीर बरजोर॥
वही धर्म, वही कर्म, बल, वही विद्या, वही मंत्र।
जासों निज गौरव-सहित, होय स्वदेस स्वतंत्र॥
अरे, फिरत कत, बावरे! भटकत तीरथ भूरि।
अजौं न धारत सीस पै सहज सूर-पग-धूरि॥
जाहि देखि फहरत गगन, गये काँपि जग-राज।
सो भारत की जय-ध्वजा, परी धरातल आज॥
जगी जोति जहँ जूझ की, खगी खंग खुलि झूमि।
रँगा रूधिर सों धूरि, सो धन्य धन्य रण-भूमि॥
भीख-सरिस स्वाधीनता, कन-कन जाचत सोधि।
अरे, मसक की पाँसुरिनु, पाट्यौ कौन पयोधि॥
सुभट-सीस-सोनित-सनी, समर-भूमि! धनि-धन्य।
नहिं तो सम तारण-तरण, त्रिभुवन तीरथ अन्य॥
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere