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सोएँ न सोयबो जागें न जाग

soen na soybo jagen na jag

घनानंद

अन्य

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घनानंद

सोएँ न सोयबो जागें न जाग

घनानंद

और अधिकघनानंद

    सोएँ सोयबो जागें जाग, अनोखियै लाग सु आँखिन लागी।

    देखत फूल पै भूल भरो यह सूल रहै नित ही चित्त जागी।

    चेटक जान सजीवनि मूरति रूप-अनूप महारस पागी।

    कौन बियोग-दसा घनआनँद मो मति-संग रहै अति खागी॥

    मेरी विरह-दशा की कैसी विलक्षण स्थिति है कि सोने पर सोना नहीं बनता और जागने पर जागना नहीं बनता। इन आँखों में ऐसी लाग लगी है कि तो उनमें सोना ही पाता है जागना ही। चित्त की स्थिति यह है कि जब तक प्रिय को आँखों से देखता है तब तक तो उसमें प्रसन्नता रहती है, पर ज्यों ही प्रिय नहीं दिखाई पड़ता तो अपनी इस भूल से युक्त खिन्नता ही इस चित्त में जागती रहती है। फूल (प्रफुल्लता) सोती रहती है और शूल (विषाद) जागता रहता है। प्रिय की जो मूर्ति आँखों से नहीं दिखती, वह भी कहीं गई नहीं है। वह मायाविनी जीवदायिनी मूर्ति, जो अनुपम सौंदर्यशालिनी है और जो अत्यंत रस (आनंद) से पगी हुई है, मेरी बुद्धि के साथ घुलमिल गई है। बुद्धि उस मूर्ति के अतिरिक्त और किसी का विचार ही नहीं कर पाती।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 228)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
    • संस्करण : 1972

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