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पाप के पुंज सकेलि सु कौन

pap ke punj sakeli su kaun

घनानंद

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घनानंद

पाप के पुंज सकेलि सु कौन

घनानंद

और अधिकघनानंद

    पाप के पुंज सकेलि सु कौन धौं आन धरी मैं बिरंचि बनाई।

    रूप की लोभनि रीझि भिजायकै हाय इते पै सुजान मिलाई।

    क्यौं घनआनँद धीर धरैं बिन पाँख निगोड़ी मरैं अकुलाई।

    प्यास-भरी बरसैं तरसैं मुख देखन कौं अँखियाँ दुखहाई॥

    जाने ब्रह्मा ने पाप की किस ढेरी को एकत्र करके इन आँखों का किस मुहूर्त में निर्माण किया है कि इन्हें केवल दु:ख ही दु:ख भोगना पड़ रहा है। इन्हें उसने सौंदर्य का लोभी बनाया। इनमें रीझ से सरस होने की टेव डाली और हाँ, इसे मिलाया भी तो सुजान के रूप से जा मिलाया (उधर रूप अपरंपार और हृदय कठोर)। भला ये किस प्रकार धैर्य धारण करें। इनकी लालसा है कि प्रिय जहाँ हैं वहीं जाकर उनके दर्शन करें, पर बिना पंख के ये अभागिनें व्याकुल हो-होकर मर रही हैं। प्रिय आते हैं और ये वहाँ उड़कर ही जा सकती हैं। प्रिय के दर्शन की पिपासा इनमें लबालब भरी है फिर भी आँसू बरसाती रहती हैं। प्रिय का मुख देखने के लिए तरसती ही रह जाती हैं ये दुखिया!

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 193)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
    • संस्करण : 1972

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