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कंत रमैं उर-अंतर में सु

kant ramain ur antar mein su

घनानंद

अन्य

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घनानंद

कंत रमैं उर-अंतर में सु

घनानंद

और अधिकघनानंद

    कंत रमैं उर-अंतर में सु लहै नहीं क्यौं सुखरासि निरंतर।

    दंत रहैं गहैं आँगुरी ते जु वियोग के तेह तचे परतंतर।

    जो दु:ख देखति हौं घनआनंद रैन-दिना बिन जान सुतंतर।

    जानैं वेई दिन-राति, बखाने तें जाय परै दिन-राति को अंतर॥

    (प्रेमिका की उक्ति सखी से) जब कोई यह जिज्ञासा करता है कि प्रिय हृदय में ही बसा है तो तू क्यों निरंतर सुख-राशि का लाभ नहीं करती तो उसका उत्तर यह है कि मेरी विरह व्यथा को देखकर वे भी दाँतों तले उँगली दबाकर अचरज प्रकट करते हैं जो विरह-वेदना की आँच में तपकर परिपक्व हो चुके हैं। वास्तविकता यह है कि स्वच्छंद मनोवृत्ति वाले प्रिय सुजान के विरह में रात-दिन मैं जो दु:ख सहन कर रही हूँ वह ऐसा दु:ख है कि उसे वे रात-दिन ही समझ सकते हैं, और तो उन्हें समझ ही नहीं सकता। यदि कोई कहे कि उसे बताओ वह कैसा है तो उसके संबंध में इतना ही कहा है कि जो दु:ख अनुभूत हुआ है और जो कहकर बतलाया जाएगा, उन दोनों में उतना ही अंतर हो जाएगा जितना दिन और रात में अंतर है। कहाँ अनुभूत दु:ख की प्रचंडता और कहाँ उसके कहने में शब्दावली का अभाव। वह अनिर्वचनीय है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 181)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
    • संस्करण : 1972

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