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अंतर आँच उसास तचै अति

antar anch usas tachai ati

घनानंद

अन्य

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घनानंद

अंतर आँच उसास तचै अति

घनानंद

और अधिकघनानंद

    अंतर आँच उसास तचै अति अंग उसीजै उंदेग की आवस।

    ज्यौ कहलाय मसोसनि ऊमस क्यौं हूँ कहूँ सु धरै नहिं थ्यावस।

    नैनउ धारि दियें बरसै धनआनँद छाई अनोखियै पावस।

    जीवनि मूरति जान को आनन है बिन हेरें सदाई अमावस॥

    विरह से अंत:करण में जो आग उत्पन्न हो गई है उसकी आँच से केवल अंत:करण नहीं, भीतर से निकलने वाली उसाँसें भी अत्यंत तप्त हो जाती हैं। जैसे निदाघ में लू चलती है वैसी ही स्थिति हो जाती है। जैसे गरमी से सारा शरीर उबला-सा रहता है, वैसे ही उद्वेग की औंस से विरह में मेरे भी सारे अंग उसीजते रहते हैं। मन इतना अधिक व्याकुल रहता है कि किसी प्रकार भी धैर्य नहीं धारण करता। फिर जैसे वर्षा होती है वैसै ही नेत्र भी धारासंताप वृष्टि करते हैं। विलक्षण पावस ही छा जाती है। उस जीवनी-संजीवनी मूर्ति सुजान के मुख को बिना देखे उस पावस में भी मेरे लिए सदा अमावास्या ही है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 126)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
    • संस्करण : 1972

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