कवींद्र के साथ ईरान को

kavindr ke saath iiran ko

केदारनाथ चट्टोपाध्याय

केदारनाथ चट्टोपाध्याय

कवींद्र के साथ ईरान को

केदारनाथ चट्टोपाध्याय

और अधिककेदारनाथ चट्टोपाध्याय

    गत माघ में कवींद्र रवींद्रनाथ से एक दिन सुना कि ईरान-सरकार ने उन्हें फिर से अपने देश में आने का निमंत्रण दिया है। कवि की उम्र सत्तर से ऊपर हो चुकी है। तंदुरुस्ती भी अच्छी नहीं रहती, उसपर से इतना लंबा दूर-दराज़ का ख़ुश्की सफ़र! इसलिए कोई भी उन्हें नहीं जाने देना चाहता था; मगर यह मालूम हुआ कि हवाई जहाज़ से यह ख़ुश्की सफ़र आसानी से तय हो सकता है। वक़्त भी कम लगेगा, और कलकत्ते से बुशायर (अबूशहर) तक डच हवाई जहाज़ों की वाक़ायदा हफ़्तेवार सर्विस भी है। कवि इन्हीं हवाई जहाज़ों के द्वारा यात्रा करना चाहते थे। उन्होंने यह इच्छा प्रकट की कि मैं भी उनके साथ चलूँ। फारस की यात्रा, हवाई सफ़र और कवि का साथ। नेकी और पूछ-पूछ! मैं फ़ौरन तैयार गया हो।

    एरोप्लेन की आवाज़, उसके झकझोरे और हिलना-डोलना मामूली आद‌मियों को ही सहना मुश्किल होता है, इसलिए कवि की वृद्धावस्था और तंदुरुस्ती देखकर लोग तरह-तरह की बातें करने लगे; मगर कवि ने किसी की बात पर ध्यान देकर स्वयं हवाई जहाज़ की यात्रा का अनुभव करना निश्चित किया, और एक दिन एक डच एरोप्लेन पर डच कॉसल और उनकी स्त्री के साथ उड़कर कलकत्ते के ऊपर चक्कर लगाए। इस हवाई जहाज़ के पाइलेट (चलानेवाले) अटलांटिक महासागर पार करने में ख्याति पानेवाले सुप्रसिद्ध उड़ाके फान डाइक (Von dyck) थे। इस अनुभव के बाद कवींद्र ने एरोप्लेन से ही जाना निश्चित किया।

    रॉयल उच्च एयरमेल (K. L. M.) कंपनी वालों से यह तय हुआ कि वे हम लोगों को बुशायर तक पहुँचा देंगे। पहले वे हम चार आदमियों को—यानी कवींद्र, उनकी पुत्र-वधू श्रीमती प्रतिमा देवी, कवींद्र के प्राइवेट सेक्रेटरी श्री अमिय चक्रवर्ती तथा मुझे एक ही एरोप्लेन पर ले जाने को राज़ी हो गए, लेकिन बाद में एकाएक उन्होंने ख़बर दी कि उनके किसी प्लेन पर दो सवारियों से ज़्यादा नहीं जा सकती। इस पर कवि ने विरक्त होकर एरोप्लेन से जाने का इरादा छोड़ दिया, और बंबई के ईरानी कौंसिल को जहाज़ से जाने का बंदोबस्त करने को लिखा। यह सुनकर मुझे बड़ी निराशा हुई। बाद में मालूम हुआ कि उच्च कंपनी कवींद्र को ले जाने के विज्ञापन का अवसर नहीं छोड़ना चाहती। कुछ दिन तक लिखा-पढ़ी होती रही। जावा को तार दिए गए। बाद में यह ख़बर मिली कि कंपनी दो बार में यानी 4 अप्रैल को एक आदमी को और 11 वीं अप्रैल को तीन आद‌मियों को ले जाने को तैयार है। एक आदमी आगे जाकर रास्ते का तथा गंतव्य स्थान का बंदोबस्त ठीक करेगा, इसलिए यह तय हुआ कि मैं पहले ट्रेन से 4 अप्रैल को चलूँ, और बाक़ी लोग 11 को रवाना हों।

    ***

    4 अप्रैल को सवेरे 3 बजे रात से उठकर तैयार हुआ। इतने सुबह उठने का अभ्यास नहीं है, इसलिए उस वक़्त भला कुछ खाना-पीना कैसे होता? फिर भी मार-पीटकर दो-तीन संदेश और एक प्याली कॉफ़ी गले के नीचे उतारकर जल्दी-पल्दी मोटर पर बैठ दमदम एरोड्रोम की तरफ़ भागा। दमदम कलकते से कुछ मील पर कलकत्ते का एक उपकूल है। यहीं पर हवाई-जहाज़ों का अड्डा बनाया गया है। एरोप्लेन सवेरे पाँच बजे छूटने वाला था। अभी तक पौ नहीं फूटी थी, उस पर कोहरा अलग छाया हुआ था, इसलिए एरोड्रोम का रास्ता मिलना ही मुश्किल हो गया। ख़ैर, इधर-उधर थोड़ा-बहुत चक्कर काटकर एरोड्रोम पहुँचे। उस वक़्त एरोड्रोम में लोग अस्तबल का दरवाज़ा खोलकर एरोप्लेन को बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे। अस्तबल के लंबे-चौड़े, हाहाहुती घर में एक और भी छोटा हवाई जहाज़ बंद था। ख़ैर, थोड़ा ठेल-ठालकर उच्च कंपनी का पुष्पक विमान बाहर निकाला गया। यह फोकार कंपनी का बनाया हुआ F. 7 टाइप का केवल दो पंखवाला (monoplane) मुसाफ़िरी ट्रेन है। गत यूरोपियन महायुद्ध में जर्मन लोग इसी कंपनी के बनाए एरोप्लेनों से आए दिन ब्रिटिश और फ्रेंच एरोप्लेनों का नाश किया करते थे। रायल उच्च एयरमेल की शोहरत बहुत कुछ इन्हीं प्लेनों के कारण है। डच उड़ाके भी जर्मनों की भाँति अपनी होशियारी और स्थिर बुद्धि के लिए संसार में मशहूर हैं।

    यह प्लेन अपेक्षाकृत छोटा था। कवींद्र जिस प्लेन में जानेवाले थे, यह F. 12 टाइप का, इससे कहीं बड़ा और कहीं ज़्यादा आरामदे है। जहाज़ का रंग नीला था, जिसपर सुनहरे अक्षरों में नाम लिखा था। अगल-बग़ल एक जोड़ ख़ूब चौड़े पंख थे, और पीछे एक छोटे-मोटे पालवाली दुम। देखने से यही मालूम होता था, मानो नीले रंग की एक बड़ी गृद्धिनी पंख मारती हुई उड़ रही है। जहाज़ में तीन इंजन थे। नीचे दो पैर-से लटक रहे थे, जिनमें दो बड़े-बड़े वैलुन टायर के पहिए लगे थे। दुम के नीचे लंगर के फल की तरह लोहे की एक चीज़ लगी थी, वही हवाई जहाज़ का लंगर था। दोनों पहियों और इस लंगर इन्हीं तीनों के सहारे जहाज़ ज़मीन पर खड़ा होता है। भीतर सामने की तरफ़ 'कॉकपिट' होता है, जिसमें बैठकर पाइलेट जहाज़ चलाता है। नाना प्रकार के गेज, मीटर आदि हैंडिल में लगे हुए हैं। पाइलेट के सामने एक बोर्ड में एक काग़ज़ और पेंसिल लगी रहती है; क्योंकि जो कुछ बातचीत करनी होती है, वह लिखकर या इशारे से ही हो सकती है। इंजन की आवाज़ में कुछ कहना सुनना तो नामुमकिन ही है। बोर्ड के ऊपर शकुन चिह्न स्परूप एक आरंग ओटंग (सुमात्रा-जावा का बनमानुस) की लाल मूरत खड़ी हुई अँगूठा दिखा रही है। जहाज़ में दो हिस्से थे; एक में माल भरने की जगह, और दूसरे में यात्रियों के बैठने का बंदोबस्त। यात्रियों के कमरे में दो लाइनों में चार बेंत की कुर्सियाँ पड़ी थी। पाइलेट के कमरे की ओर एक कुर्सी के सामने बेतार का तार लगा था। वहाँ पर वायरलेस ऑपरेटर हर वक़्त कान में फ़ोन लगाए बैठा रहता है। कमरे के दोनों ओर सेलूलाइड की बनी हुई खिड़‌कियाँ थीं। ऊपर में रेलगाड़ियों की भाँति टोपी आदि रखने की छोटी-छोटी टाँडें थीं। पीछे एक छोटा बाथरूम और सामान रखने की कोठरी थी।

    हिंदोस्तान से बाहर जाने के लिए हवाई जहाज़ों की तीन लाइनें हैं। अँग्रेज़ी 'एयरवेज़ कंपनी' के हवाई जहाज़ कराची से लंदन तक हर हफ़्ते जाते हैं। इन जहाज़ों का किराया भारी-भरकम और चाल बहुत सुस्त है। कलकत्ते से अगर डच या फ़्रेंच हवाई जहाज़ों को चिट्ठी दी जाए, तो वह अँग्रेज़ी हवाई जहाज़ की बनिस्बत चार दिन पहले लंदन पहुँचेगी, मगर ऐसा होने से अँग्रेज़ी कंपनी का चार ही दिन में दिवाला निकल जाएगा, इसलिए फ़्रेंच और डच जहाज़ों को इस देश से डाक ले जाने की आज्ञा नहीं है। उच रॉयल एयरमेल के जहाज़ हर हफ़्ते जावा से रंगून, कलकत्ता, जोधपुर, कराची होकर एम्सटर्डम (हॉलैंड) जाते हैं। तीसरी लाइन फ़्रेंच हवाई जहाज़ों की है, जो प्रति पंद्रहवें दिन इंडो-चाइना में सैगन से रंगून, कलकत्ते आदि के रास्ते मासाई (फ़्रांस) जाते हैं। फ़्रेंच जहाज़ साइज़ में सबसे छोटे, मगर चाल में सबसे तेज़ हैं। उच्च जहाज़ भी प्रायः उतनी ही तेज़ी से जाते हैं, मगर वे सबसे ज़्यादा निरापद और समय के हिसाब से सबसे अधिक नियमित मशहूर है।

    पाँच बजे खलासियों ने जहाज़ को बाहर निकालकर खड़ा किया। कोई दस मिनट बाद डच कंपनी के एजेंट ड्रेसिंग गौन पहने चट्टी सटकाते हुए मौजूद हुए। एक कर्मचारी ने मेरा असमान तौला। पंद्रह किलोग्राम (लगभग 15 सेर) असबाब बिना महसूल लिया गया; बाक़ी पर कलकत्ते से बुशायर तक का 6 फी सेर किराया लगा। इतने में जहाज़ के कर्मचारी भी गए। एजेंट साहब ने उनसे मेरा परिचय कराया, और उन्होंने मेरी स्त्री से जहाज़ का भीतरी भाग देखने का आग्रह किया। इस पर मेरी स्त्री तथा अन्य बंधुओं ने जहाज़ पर चढ़कर उसे अच्छी तरह देखा।

    इतने में जहाज़ के कर्मचारियों ने इंजन आदि की परीक्षा शुरू की। प्रत्येक जहाज़ में पाइलेट, सहकारी पाइलेट, मैकेनिक (यंत्र-परीक्षक) और उसका सहकारी—चार आदमी रहते हैं। सहकारी मैकेनिक बेतार के तार का काम भी करता है। जाँच करने पर मालूम हुआ कि बाईं तरफ़ के इंजन के पल्ग में कुछ गड़बड़ है। मैकेनिकों ने फ़ौरन उसे खोलकर बदल डाला। अब तीनों इंजन एक-एक करके पूरे ज़ोर से चलाए गए। इंजनों की आवाज़ से कान फटने लगे। तीनों प्रोपेलरों की आँधी से धूल और पत्तों का बवंडर उठने लगा। डच इंजनों के चलाने—स्टार्ट करने का—तरीक़ा भी अनोखा है। प्रत्येक इंजन में तोप के मोहरे की तरह एक Starting Chamber होता है। इसी मुँह में बारूद का एक कार्तूस पहना देते हैं। इस कार्तूस में एक डोरी लटकती रहती है। मैकेनिक इस डोरी को पकड़कर ज़ोर से चिल्लाता है—O.K. (सब ठीक)। पाइलेट भीतर से चिल्लाकर जवाब देता है—O.K.। मैकेनिक एक बार फिर चिल्लाता है—Hold tight (कसकर पकड़ो)। भीतर से पाइलेट जवाब देता है—Hold tight। बस, मैकेनिक डोरी खींच लेता है, कार्तूस चलता है, और इंजन स्टार्ट हो जाता है।

    इंजन और कल-पुर्जों की जाँच हो चुकने पर, सबसे विदा लेकर, मैं जहाज़ पर सवार हुआ। दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर दिया गया। मैं पहले-पहल हवाई जहाज़ पर चढ़ा था, इसलिए कौतूहल का कोई ठिकाना ही था। यात्रा शुरू हुई। पहले जहाज़ गड़गड़ करके मैदान की दूसरी ओर ज़मीन पर चला, क्योंकि हवाई जहाज़ हवा की विपरीत दिशा को छोड़कर उड़ नहीं सकता। इसलिए हर एक एरोड्रोम को चोटी पर हवा का रुख़ बताने का यंत्र लगा रहता है। मैदान में घूमकर जहाज़ हवा के रुख़ के विपरीत खड़ा हुआ। तीनों इंजन नए कर शब्द के साथ गरज उठे। इसी बीच में सहकारी मैकेनिक ने मेरे पास आकर एक खिड़की खोल दी और कहा—रूमाल उड़ाने के लिए।

    हवाई-जहाज़ पहले ज़मीन पर ज़ोर से दौड़ा, फिर ऐसे झोंके लेने लगा, मानो घोड़ा सरपट दौड़ रहा हो। उस समय वह ज़मीन छोड़ रहा था—रह-रहकर ज़मीन छोड़ देता तथा फिर ज़मीन पर टिक जाता था। ज़रा-सी देर में सब झोंके बंद हो गए। नीचे देखा, तो ज़मीन से बीस-तीस फ़ीट ऊपर थे। ज़रा-सा और ऊपर उठने पर सारा दमदम एक अजीब नज़ारा दिखाने लगा। चारों तरफ़, खेत, ज़मीनें, पेड़ों की कतारें, घर-झोंपड़े सभी चीज़ों बौनी-सी दीख पड़ने लगीं। एकाएक ऐसा जान पड़ा, मानो खेत-ज़मीन सभी करवट के बल हो गए हों। बहुत नीचे ऐरोड्रोम में अनेकों रूमाल और चादरें हिल रही थीं, और मेरा छोटा भाई दोनों हाथों से इशारा कर रहा था। देखते-ही-देखते बहुत ऊपर उठ गए, और गंगा की ओर बढ़े। कोहरे का झीना आवरण ओढ़े कलकत्ता शहर सोता पड़ा था।

    ज़मीन से हवाई जहाज़ की ऊँचाई का अंदाज़ लगाना मुश्किल है। पूछने की भी सूरत थी, क्योंकि इंजन ऐसे ज़ोरो से गरज रहे थे कि उनकी आवाज़ से बचने के लिए सभी कानों में रूई ठूँसे थे। फिर भी पहाड़ पर चढ़ने के अंदाज़ से कोई दो हज़ार फ़ीट की ऊँचाई से हम लोगों ने गंगा पार की। दूर पर बाली का पुल दीख पड़ा। गंगा की धार नागिन की तरह बलखाती हुई कोहरे में ग़ायब हो गई। गंगा पार होकर थोड़ा आगे बढ़ने पर सोत और ज़मीनें शतरंज के खानों-सी देख पड़ती थीं।

    ***

    तीनों इंजनों की भयंकर आवाज़ के साथ जहाज़ थर-थर काँपता था। बीच-बीच में हवा के झोंकों में पड़कर यह हिंडोले की तरह ऊपर-नीचे जाता-आता था। बहुत नीचे पर छोटे-छोटे तालाब, खेत, मैदान—जिनमें बीच-बीच में चौपायों का झुंड चीटियों की पंक्ति की तरह धूल उड़ाता जाता था नज़र आता था। जहाँ पर पेड़-पत्ते ज़्यादा थे, वहाँ गाढ़ा हरा रंग दिखलाई पड़ता था। बहुत ऊपर से नीचे की ओर ताकने में कुछ और ही दृष्टिकोण से देखना पड़ता है।

    सुना था कि हवाई जहाज़ रेल-लाइन के साथ ही साथ जाता है, मगर बहुत आँख गड़ाकर देखने पर भी रेलवे लाइन कहीं दिखाई पड़ी। हाँ, बीच-बीच में ग्रैंड ट्रंक रोड दिखाई पड़ जाती थी। एक बार एक छोटा स्टेशन भी नज़र पड़ा था। सह‌कारी मैकेनिक साहब बेतार का तार छोड़कर आए और काग़ज़ के बने हुए डिक्सी गिलास में फ्लास्क से गरमागरम चाय बालकर मेरे पास लगे हुए ब्रैकेट में अटका गए। फिर कुछ सैंडविच (पकौड़ियाँ) और एक टुकड़ा केक भी खाने को दे गए।

    इन लोगों का यह खाना-पीना सारा दिन चलता रहता है। खाने-पीने के समय-असमय का विचार करके बिना दूध-चीनी की गर्म चाय,—जो बाद में ठंडी हो जाती है,—रोटी, मक्खन, केक, बिस्कुट, डब्बों में बंद मछली, विलायती मटर, केला, नारंगी, अंडे, ठंडा मांस इत्यादि चीज़ों का भोग लगाया करते हैं। ज़रा देर में वही महाशय काग़ज़ पर यह प्रश्न लिखे हुए मौजूद हुए कि मेरा वज़न कितना है? पूछने पर मालूम हुआ कि वे हिसाब लगा रहे हैं कि जहाज़ पर कुल कितना बोझ है। मैंने लिखकर पूछा कि कितनी ऊँचाई पर जा रहे हैं। उन्होंने पाइलेट के यहाँ जाकर पता लगाकर बताया—1,100 मीटर, यानी लगभग 3,500 फ़ीट। इतना ऊपर उठने पर भी गर्मी में विशेष कमी नहीं मालूम होती थी।

    देखते-देखते नीचे के कछार का रंग हरे और घूसर वर्ग से बदलकर लाल हो गया। पेड़-पत्ते भी कम हो गए। बीच-बीच में ताल-तलैयाँ ऐसी मालूम होती थीं, जैसे ताड़ के पेड़ों के फ़्रेम में जड़ा हुआ आईना चमक रहा हो। उनके पास खपरैल के झोंपड़ों के गाँव बच्चों के खेल के घरों से दिखाई पड़ते थे। ज़मीन भी कहीं जोती-बोई थी और कहीं ऊसर। जान पड़ा कि वीर भूमि का ज़िला पार कर रहे हैं। थोड़ा आगे बढ़ने पर छोटी-बड़ी पहाड़ियाँ दीख पड़ने लगीं। उसके बाद बड़े-बड़े पहाड़ नज़र आए। दूर पर बालू से भरी हुई नदीं दिखाई देती थी। एक पहाड़ देखकर अनुमान हुआ कि काशीपुर-पंचकोट का पहाड़ है। उसके बाद बारी-बारी से पहाड़, पहाड़ियाँ, वन, जंगल और कहीं-कहीं पर कम आबाद हिस्से मिलते रहे। बीच-बीच में बालू के वक्ष पर चाँदी की रेखा-सी बलखाती हुई एक-आध छोटी नदियाँ दिखाई दे जाती थीं। बाद में सभी एक सा जान पड़ने लगा, शायद इसलिए कि हजरते इंसान की करामात के कोई निशान नज़र आते थे।

    नौ साढ़े नौ बजे, पहाड़ों से घिरी हुई एक बड़ी नदी दिखाई दी। इतने ऊपर से देखने पर भी इस जगह को पहचानना नामुमकिन था, क्योंकि सोन नदी और रोहतास पहाड़‌ को एक बार देखने के बाद भूलना असंभव है। नदी के समीप हमारा जहाज़ किसी कारण से नीचे उतर आया। अब तो गाय-भैंसों के बाड़े, नदी-तट की बालू पर चरवाहे लड़कों की दौड़ा-दौड़, जल में लोगों का तैरना और औरतों का कपड़ा धोना सभी चीज़ों ख़ूब साफ़ दिखाई पड़ने लगीं। सोन के बालू-भरे विशाल वक्ष पर स्वच्छ जल की धारा बह रही थी। दूसरे तट की और पर्वत-श्रेणी हमारे जहाज़ से ऊँची थी। इतनी देर तक नीचे पृथ्वी को एक अपरिचित भाव से देखने के बाद सहज भाव से ऊपर की ओर से देखने में आँखों में ठंडक-सी पहुँची। पुष्पक रथ पर देवता के समान बैठने से मन में एक प्रकार के बड़प्पन के भाव ज़रूर आते हैं, मगर साथ ही समस्त परिचित जगत से एक प्रकार के विच्छेद-भाव आकर दिल में एक बेचैनी-सी पैदा कर देते हैं। सच है, उच्च पद के साथ अशांति भी काफ़ी होती है।

    नदी पार करने के बाद जहाज़ धीर-धीरे ऊपर उठने लगा। इधर इस तरह से पहाड़-पर-पहाड़ आने लगे, मानो उनका अंत ही नहीं। प्रत्येक पहाड़ के बाद थोड़ी-सी समतल भूमि और उसके बाद फिर उससे भी ऊँचा पहाड़। मालूम होता था कि दैत्यों का जीना हो। ख़ैर, जहाज़ ने ऊपर उड़कर इन पहाड़ों को पार किया। एक बार फिर मैदान और समतल भूमि दिखाई दी। जगह-जगह खपरैलों के मकानों के ग्राम और दो-एक छोटे-मोटे शहर तथा एक-आध छोटी नदियाँ भी मिलीं। ग्यारह बजे यमुना की नीली धारा दीख पड़ी। उसे पार करते समय दाहनी ओर यमुना का पुल और इलाहाबाद का क़िला नज़र आया। पार होते ही इलाहाबाद‌ के म्योर-कॉलेज का क्लॉक-टावर, ख़ुशरोबारा और अन्य अनेक चिरपरिचित चीज़ें देखीं। कुछ क्षण में इलाहाबाद पीछे छूट गया। सामने आकाश में और भी ऊँचाई पर कोई चीज़ उड़ती हुई नज़र आई। मैं सोचने लगा कि वह कोई दूसरा जहाज़ है, या कोई चिड़िया होगी। इतने में इंजन की आवाज़ एकदम कम हो गई, और वह चीज़ भी ग़ायब हो गई। नीचे देखा, तो जान पड़ा, एक एरोड्रोम धीरे-धीरे आगे बढ़ा चला रहा है। धीरे-धीरे जहाज़ ज़मीन की ओर उतरने लगा। एरोप्लेन का नीचे उतरना बड़े आराम का है। हिलता-डोलता है, धक्के या झोंके लगते हैं। इंजन बंद होने से आवाज़ भी नहीं होती। जहाज़ के ज़मीन पर लगने के ठीक पहले तक प्लेन सरसर करके उतर आता है। ठीक ज़मीन पर लगते वक़्त इंजन फिर चलाया जाता है। उसके बाद ज़मीन पर टिकने के साथ ही बड़े ज़ोर के धक्के और झोंके लगते हैं। गड़गड़ाहट की आवाज़ होती है, और जहाज़ घोड़े की तरह कूदता है। ज़रा ही देर में दोनों पहिए ज़मीन पर लगकर एक से दौड़ने लगते हैं, और ठीक जगह पर पहुँचते ही इंजन बंद कर दिया जाता है, फिर जहाज़ खड़ा हो जाता है।

    इलाहाबाद में बड़ी गर्मी थी। एरोड्रोम शहर से दस मील दूर बमरौली गाँव में एक बड़े मैदान में बना है। जहाज़ से नीचे उतर, थोड़ी दूर पैदल चलकर, मैं पैरों को ठीक करने लगा; इतने ही में ललित भैया (डॉ. ललितमोहन वसु) खाने-पीने का सामान लिए हुए मौजूद हुए। उनके मोटर पर बैठकर हम लोग साथ पदार्थी का सद्व्यवहार करने लगे, तब तक देखा कि एक मटमैले लाल रंग का ऐरोप्लेन भी वहाँ उतरा। मालूम हुआ कि यह फ़्रेंच एयर ओरियंट लाइन का ऐरोप्लेन है, जो सैगन (इंडो-चाइना) को जा रहा है। शायद यही प्लेन था, जो थोड़ी देर पहले मुझे आकाश में उड़ता दिखाई दिया था। खाना समाप्त करके ललित तथा अन्य बंधुओं को मैंने भीतर से जहाज़ दिखलाया। इतने ही में इंजन चलने लगा। मैकेनिक साहब को दो उँगलियाँ ऊपर उठाए हुए देखकर समझ गया कि सब ठीक है। ख़ैर, मैं भी सवार हो गया, और जहाज़ फिर चला।

    ***

    नदी-नद, खेत, ऊजड़ मैदान, शहर और गाँवों को नीचे छोड़कर जहाज़ हूँ-हूँ करता हुआ, तूफ़ान की तरह, दौड़ने लगा। ऊपर हवा का रुख़ विरुद्ध दिशा में था, इसलिए जहाज़ नीचे के ही स्तर में (तीन-चार हज़ार फ़ीट की ऊँचाईं पर) जा रहा था। सुना कि सहकारी मैकेनिक साहब बेतार के तार से देश-भर के हवाघरों (मेटिबॉरॉलाजिकल ऑफ़िसों) से हवा की अवस्था के संबंध में पूछ-ताछ कर रहे है। एक बार एक बड़ी झील के समान कोई चीज़ दिखाई दी, और सुदूर क्षितिज पर पहाड़ों की अस्पष्ट छाया भी नज़र आई।

    झील के चारों तरफ़ सरल रेखाओं की भाँति नाले थे। मालूम हुआ कि वे शायद आबपाशी की नहरें हैं। इन नहरों के दोनों ओर हरे खेत थे, और उनके बाद बड़े भारी मैदान, जिनमें असंख्य गायें-भैंसें चरती घूमती नज़र आती थी। बीच-बीच में खेतों की फ़सल कटी रखी थी। ये स्थान धूप में झरे-पोंछे आँगन की तरह चमचमा रहे थे। हवा का रुख़ विपरीत होने से जहाज़ बहुत नीचे उत्तर आया था। अब लोगों के अस्पष्ट चेहरे भी दिखाई देने लगे। वे लोग भी हमारे जहाज़ की तरफ़ ताकते थे, और एक दूसरे को ऊपर इशारा करके जहाज़ दिखाते थे। अब तक मैं भी ऊपर ऐरोप्लेन देखा और दिखाया करता था। यह पहला ही मौक़ा था कि दर्शक से दृष्टव्य श्रेणी में आया था।

    गायों और भेड़ों के कुंड ऐरोप्लेन की आवाज़ सुनकर, भड़ककर, चारों ओर भागते थे। ऊपर देखने की उनमें बुद्धि नहीं जान पड़ती, मगर इस मामले में भैंसें बहुत गंभीर जान पड़ीं। उनमें अधिकांश मुँह उठाकर अपनी साथिनों की घबराहट को देखती, और फिर गंभीर भाव से चरने लगती थीं, बाक़ी मुँह भी ऊपर नहीं उठाती थीं।

    धीरे-धीरे नीचे की मिट्टी का रूप-रंग बदलने लगा। पेड़-पौधे नदारद होने लगे। छोटे-बड़े पहाड़ भी मिलने लगे। मालूम हुआ कि राजपूताने की सीमा में प्रवेश कर रहे हैं। अब आदमियों की पगड़ियों और स्त्रियों के रंगों का बाहुल्य दिखाई देने लगा। ऊपर से खेतों के बीच-बीच में उज्ज्वल, लाल, नारंगी रंग के बाँधेरे पहने और गहरे नीले रंग के दुपट्टे ओढ़े स्त्रियों का दल बहुत सुंदर दीख पड़ता था। धीरे-धीरे पहाड़ों की संख्या बढ़ने लगी। ये पहाड़ अजंता से इलोरा जाते समय इंध्याद्रि के पहाड़ों के समान समतल पृष्ठ और श्रेणीवद्ध थे। ऐसा जान पड़ता था, मानो एक के बाद एक समुद्र की लहर जमकर पत्थर हो गई हो। दो-चार ऊँट भी दिखाई दिए। कई बार पहाड़ों की गोद में, बड़े-बड़े पत्थरों के ढोकों में, छिपी हुई नीले पानी की कई छोटी-बड़ी नदियाँ भी दिखाई दीं। एक ऐसा पहाड़ मिला, जिसकी चोटी से लेकर तलेटी तक पुराने, काले, काई लगे हुए मंदिरों और मठों से टँकी थी। प्रायः पाँच बजे शाम को दूर से ही जोधपुर का क़िला और उसके नीचे बसा हुआ शहर दिखाई दिया। पाँच बजे जोधपुर जा उतरे। इलाहाबाद से जोधपुर तक हवा के बहुत तेज़ होने और विपरीत दिशा में बहने के कारण जहाज़ बहुत हिलता-डुलता था, और हवा के बगूलों में पड़कर ऊपर-नीचे भी गिरता-उठता था। ऐरोप्लेन की भाषा में इसे Very bumpy journey कहते हैं। एकाएक नीचे उतरने का अनुभव कोई विशेष आरामदे नहीं है। जान पड़ता है कि जैसे पैर के नीचे से सब कुछ खिसक गया हो, और शरीर का निचला भाग मानो नीचे धसनेवाला हो। समुद्र में तूफ़ान के झोंके खाते हुए जहाज़ से उतरकर जब कड़ी ज़मीन पर पैर रखते हैं, तब ऐसा जान पड़ता है, मानो ज़मीन भी हिलती-डुलती हो। जोधपुर में हवाई जहाज़ से उतरने पर भी ठीक वैसा ही अनुभव हुआ। मेरे उतरने के बाद ही पाइलेट ने जल्दी से आकर पूछा—कहिए, क्या बड़ी bumpy journey (धचकेवाली यात्रा) थी? आपको यह पहला ही सावक़ा है, तबीयत तो ख़राब नहीं मालूम होती? मैंने कहा—नहीं, सो कुछ बात नहीं। इतने में डच कंपनी के जोधपुर के एजेंट मौजूद हुए। पाइलेट साहब ने मुझे उनके मोटर पर बिठाकर होटल पहुँचा दिया। रात में ऐरोप्लेन नहीं चलता, इसीलिए वहाँ राज्य की ओर से यह होटल खुला है। होटल का इंतज़ाम बहुत बढ़िया है, मगर रात में गर्मी बहुत होने से अच्छी तरह नींद नहीं आई।

    सवेरे साढ़े चार बजे अर्द्धनिद्रित अवस्था में ही एरोड्रोम पहुँचा। चारों तरफ़ सन्नाटे और अंधकार का राज्य था। मैदान में मेरा प्लेन, एक अँग्रेज़ी फ़ौजी प्लेन और एक विदेशी प्लेन खड़े थे। इंजन चलाने पर मालूम हुआ कि हमारे प्लेन के बीच का इंजन बहुत Miss कर रहा है। मैकेनिक और उनके सहकारी लोग इंजन दुरुस्त करने में जुट गए। पाइलेट साहब मुझे एरोड्रोम का नया अस्तबल दिखाने के लिए ले गए।

    जोधपुर के महाराज को एरोप्लेन का बड़ा शौक़ है। देखा कि उनके पास तीन माथ (Moth) एरोप्लेन हैं। वे ख़ुद भी अच्छे पाइलेट हैं। हमारे यहाँ रहते समय ही वे एक छोटे लड़के को (शायद राजकुमार होगा) साथ लेकर आए, और एक प्लेन पर शायद सुबह की हवाख़ोरी के लिए आसमान पर उड़े। मैंने मन में सोचा कि हाँ, राजाओं के लिए यह उपयुक्त हवाख़ोरी है। लौटकर आया, तो देखा, और दो एरोप्लेनों के लोग भी गए हैं, और उनके इंजनों में भी गोलमाल है। सुना कि विदेशी एरोप्लेन रुमानिया के किसी राजकुमार का है, जो उनकी फ़रमाइश के मुताबिक़ ख़ासतौर पर तैयार किया गया है। वे उस प्लेन की परीक्षा लेने के लिए अकेले श्याम जा रहे थे। स्वाधीन देशों के राजे रजवाड़ों के शौक़ भी पुरुषोचित ही होते हैं।

    आठ बजे इंजन ठीक हुआ। पेट्रोल का पाइप बंद हो गया था। एक देशी नवयुवक ने मैकेनिक को विशेष सहायता दी थी, इसलिए सबने उसे बहुत धन्यवाद और थोड़ी बख़्शिश देकर ख़ुश किया। फिर पिछले दिन की भाँति O. K. Hold tight का सबक दोहराया गया, कार्तूस दाग़ा गया, एक-एक करके तीनों इंजन भीम वेग से गर्जन करने लगे। पाइलेट साहब ने अँगूठा दिखाया, और हमारा पुष्पक विमान आकाश में उड़ने लगा।

    जोधपुर छूटने पर रेगिस्तान अपने असली रूप में दीखने लगा। चारों तरफ़ सफ़ेद बालू-ही-बालू थी। कहीं-कहीं पर एक-आध दीवारों से घिरे हुए अहाते और दो-चार घर दिखाई पड़ जाते थे। यह सब देखते-देखते निद्रा आने लगी, और मैं सो गया। आँख खुलने पर देखा कि नीचे की ज़मीन आश्चर्यजनक समतल और सफ़ेद थी। कहीं पर ज़रा भी ऊँचा-नीचा नज़र आता था। आदमी-आदमज़ाद का नहीं दिखाई देता था। सर्दी मालूम पड़ने लगी, पेड़-पत्ते और कोई निशान अब काफ़ी मगर उस समय उसका कारण समझ में आया। थोड़ी देर बाद अचानक समझाई दिया कि सफ़ेद ज़मीन का कुछ अंश थोड़ा दूसरे रंग का है, और उस पर कुछ बहुत छोटी-छोटी काली चीज़ें—कीड़ों की तरह—हैं।

    एक काला बिंदु खिसककर अलग हटा, इससे यह मालूम हुआ कि यह कोई जंतु है, मगर पेड़-पौधे होने के कारण अनुपात का अंदाज़ा लगने से आँखों का भ्रम गया। ज़मीन बहुत नज़दीक जान पड़ती थी। बाद में सुना कि हम लोग 3500 मीटर अर्थात् 10,500 फ़ीट की ऊँचाई पर जा रहे हैं, क्योंकि नीचे रेगिस्तान में बालू की आँधी का डर है। प्लेन इस समय बड़ी तेज़ी से जा रहा था, इसीलिए चार घंटे से भी कम समय में 500 मील तय करके हम लोग कराची जा पहुँचे। कराची शहर से आठ-दस मील दूर रेगिस्तान की गोद‌ में कराची का ऐरोड्रोम है। रेल से अगर आप दिन-रात चलें, तो साठ घंटे में कलकत्ते से कराची पहुँचेंगे ऐरोप्लेन से केवल दिन-ही-दिन में चलकर सत्ताईस घंटे में (पंद्रह घंटे ऐरोप्लेन पर और 12 घंटे होटल में) अनायास ही कराची पहुँच गए।

    कराची में श्रीयुत चट्टोपाध्याय और उनकी श्रीमती भोजन-सहित ऐरोड्रोम में गई थीं। उन्होंने भोजन कराकर तृप्त किया। कराची से हिंदोस्तान छूटता है। यहाँ कस्टम और डॉक्टरी परीक्षाएँ होती हैं। कस्टम अफ़सर ने दो-चार बातें पूछकर कहा कि अपने कैमरे पर मोहर लगाकर पाइलेट के पास जमा कर दो, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के अनुसार, बिना विशेष अनुमति प्राप्त किए, आकाश से फ़ोटो लेना मना है। मुझे यह बात मालूम थी, इसलिए कैमरा पहले ही से पाइलेट के पास जमा करा दिया था। डॉक्टर साहब ने सिर्फ़ यह पूछा कि मैंने प्लेग, कालरा, चेचक, आमाशय, टाइफ़स, टाइफ़ाइड आदि बीमारियों के टीके लिए हैं या नहीं। ख़ैर, 12 बजे कराची से रवाना हुए। अब भारत-भूमि छूट गई।

    कराची छोड़कर एरोप्लेन सीधा समुद्र के ऊपर उड़ने लगा। कुछ ही देर बाद पृथ्वी के ओर-छोर अदृश्य हो गए। जब तक तट के पास थे, तब तक मछुओं की दो-एक नावें दीख पड़ जाती थीं, मगर कुछ मिनटों में वे भी ग़ायब हो गई। चारों तरफ़ बस अथाह पानी ही पानी था। जिन उड़ाकों ने अटलांटिक को पार किया था, उनके हृदयों में कैसे भाव उठते होंगे, इसका कुछ-कुछ अनुभव होने लगा। पानी और आकाश, आकाश और पानी। चारों तरफ़ निर्जन निस्तब्धता फैली थी। केवल एरोप्लेन के कुछ प्राणी इंजन के गर्जन के साथ सागर पार कर रहे थे। इस प्रकार प्रायः डेढ़ घंटे चलने के बाद दाहनी तरफ़ ज़मीन का किनारा दिखाई पड़ा। कुछ ही क्षण में वह टेढ़ा-मेढ़ा होकर आगे मगर उस पर पेड़-पत्ते या बस्ती का कोई चिह्न अरब सागर की लहरों से धोया हुआ, सीधा बालुकामय तट था, जिस पर समुद्र का हाशिया चढ़ा था। बालू के ऊपर पत्थरों के बड़े ऊँचे-ऊँचे ढोके-से थे। आकाशसे देखनेमें यह तट-प्रदेश जितना सुंदर दिखाई देता है, नाव या जहाज़ों से उतरने के लिए उतना ही भयंकर और घातक है। हाँ, भूतत्त्व की दृष्टि से बलूचिस्तान का यह तट एक अच्छा उदाहरण है। समुद्र का जल, आवह्वा, बादल-बूँदी, पहाड़ आदि वस्तुओं से प्रकृति देवी ने इस तट-प्रदेश में अपनी पूरी कारीग़री दिखलाई है।

    हवा तूफ़ान की तह ज़ोर से विपरीत दिशा में वह रही थी। ऐरोप्लेन जब ऊपर उठता था, तब समुंद्र का जल तालाब की भाँति निश्चल और काँच-सा साफ़ दिखाई देता था, और जब हवा का थपेड़ा खाकर नीचे कविवर श्री रवींद्रनाथ का लोप्लेन मुशायर में उतर रहा है। उतरता था, तब जल के वक्षस्थल पर लहरों का नृत्य और फेन की माला दोखने लगती थी। एक बार सूँसों का एक दल भी नज़र आया था।

    इधर घंटे-पर-घंटे बीत रहे थे। मालूम होता था कि आज आकाश-मार्ग का अंत होगा। दो-एक छोटे अंतरीप पार होने के बाद फिर तट से कोई संपर्क नहीं रहा। मेरे मन में विचार आया कि सिर्फ़ बीस इक्कीस वर्ष पहले फ्रेंच उड़ा के ब्लेरिओ ने मामूली सी इंग्लिश चैनल (इक्कीस मील) पार करके डेढ़ लाख रुपया इनाम पाया था, और आज देखिए कि सिर्फ़ थोड़ा सा किराया देकर लोग अरब सागर (600 मील) पार करते हैं! प्रतिसप्ताह मेशीन की तरह कितने ऐरोप्लेन इधर-से-उधर आते-जाते हैं, कोई इसकी ख़बर तक नहीं रखता।

    बहुत देर तक हिलने-डुलने और धक्का लगने से थकावट मालूम होने लगी। तूफ़ान का ज़ोर किसी तरह भी कम होता था। लगातार आठ घंटे से ऐरोप्लेन चल रहा था। इतने में सहकारी पाइलेट साहब ने उद्विग्र-भाव से पेट्रोल-गेज़ (नापने का यंत्र) की और ताकना शुरू किया। यह व्यापार देखकर मेरा हृदय सिहर उठा। यदि पेट्रोल ख़तम हो जाए तो? ऐरोप्लेन पर चढ़ने के बाद यह पहले-ही-पहल खटका हुआ था, मगर अधिक देर तक सोचने के पहले ही दूर पर सूखी भूमि दिखाई दी। आठ घंटे उड़ने के बाद जस्क ऐरोड्रोम जा पहुँचे। चूँकि हम लोग पश्चिम की ओर जा रहे थे, इसलिए संध्या भी देर से हुई, और उजेला रहते-रहते ही हम लोग भूमि पर जा उत्तरे।

    फारस की भूमि पर यह पहली ही बार पदार्पण था।

    पहले ही सुन रखा था कि इस देश में चुंगी और पासपोर्ट आदि के संबंध में बड़ी कड़ाई और देख-रेख होती है, इसलिए इन झंझटों से बचने के लिए मैं बंबई के ईरानी राजदूत की चिट्टी साथ लाया था, जिसमें ईरानी सरकार के निमंत्रण का हवाला था। थका-माँदा मैं उतरा ही था कि चुंगीवालों का दल माल-असबाब देखने के लिए धमका। मैंने वह चिट्ठी और पासपोर्ट उनके आगे धर दिया। चिट्ठी ने जादू का काम किया। प्रधान कर्मचारी ने कहा—आप सीधे विश्राम घर में मय अपने सामान के चले जाइए। आपके सामान की जाँच-पड़ताल की ज़रूरत नहीं। मैं आपका पासपोर्ट देखकर आदमी के हाथ भिजवाए देता हूँ। ऐरोप्लेन वाले भी यह देखकर भौंचक्के रह गए। उन्होंने कभी कल्पना में भी यह नहीं सोचा था कि मैं चुंगीवालों से ऐसी आसानी से छुटकारा पा जाऊँगा।

    जस्क समुद्र-तटपर एक बालुकामय छोटा अंतरीप-मात्र है। यहाँ के लोगों का मुख्य रोजगार मछली पकड़ना, चुंगीवालों की आँख बचाकर बिना चुंगी चुकाए माल लाना और इंडो-पर्शियन तारघर या ऐरोड्रम में काम करना है। यह कच्चे मकानों का छोटा गाँव है। आसपास दो-एक ओसिस (नख़्‌लिस्तान) भी है।

    आते वक़्त ऐरोप्लेन की आवाज़ से ऊँटों का एक दल तितर-बितर होकर भागता दिखाई पड़ा था।

    यहाँ के 'रेस्ट-हाउस' (विश्रामघर) में रात काटी। यह ब्रिटिश इंपीरियल एयरवेज़ कंपनी का बनवाया हुआ है, और एक ब्रिटिश दंपति की देख-रेख में है। ख़ूब सवेरे उठकर पुनः यात्रा आरंभ हुई। और डच ऐरोप्लेन भारत की ओर जा रहा था। उसके द्वारा घर को ख़बर भिजवाई।

    एक मैंने सुबह जब ऐरोप्लेन रवाना हुआ, तब ख़ूब फोहरा छाया हुआ था। हवा भी प्रतिकूल थी, इसीलिए समुद्र के ऊपर बहुत निचाई पर ही जा रहे थे। थोड़ी देर बाद आँख खुलने पर देखा कि किनारे के पास जा पहुँचे हैं, और सामने मेघों से ढका हुआ अभ्रभेदी पहाड़ है। कोहरे और अंधकार से सभी चीज़ें अस्पष्ट दिखाई देती थीं। ऐरोप्लेन एकाएक सीधा ऊपर उठने लगा। जितना ही ऊपर उठते जाते थे, उत्तनी ही छोटे-बड़े पहाड़ों की नोकीली चोटियों की पंक्तियों पर पंक्तियाँ नज़र आती थीं। मालूम पड़ता था, मानो कोई हिंस्त्र जंतु ऐरोप्लेन को निगलने के लिए मुँह बाये बढ़ा चला आता हो। कोहरा और हवा सभी विरोधी थे। इसके अलावा प्लेन को पहाड़ से टकराने से बचाने के लिए दाहने-बाएँ घुमाना पड़ता था। पाइलेट साहब ने एक बार पीछे फिरकर सहकारी की ओर देखा। सहकारी फ़ौरन जाकर उन्हें सहायता देने लगा।

    तीनों इंजन प्रचंड गर्जन कर रहे थे। रेवमीटर की सुई 16-18 से बढ़कर 20-22 पर काँपने लगी। प्लेन के भीतर का अगला हिस्सा पिछले का समतल होकर काफ़ी ऊँचा कोण बनाता हुआ ऊपर को उठा हुआ था। इधर पहाड़ों की ओर देखने में भय मालूम होता था। डर लगता था कि अब टकराए, अब टकराए! बहुत नीचे पहाड़ पर छोटे-छोटे कटे हुए खेत, —जैसे दार्ज़िलिंग के नीचे शिकिम की ओर दीख पड़ते हैं—नज़र आते थे। उनके बीच में खपड़े या मकई के डंठलों से छाए हुए छोटे-छोटे घर थे। और भी नीचे पहाड़ की दीवार से घिरे हुए और पाताल में छिपे हुए बंदरगाह थे, जो मालूम होता है, किसी ज़माने में (शायद अब भी) समुद्री डाकुओं के क़िले रहे होंगे। सामने मेघ दिखाई दिए। प्लेन उन्हें भेदकर ऊपर उठने लगा। बड़ी विषम और आतंक-उत्पादक चढ़ाई थी।

    पाइलेट ने कहा था कि प्रत्येक बार जावा चूमकर आने पर उन्हें आराम के लिए हूँ सप्ताह की छुट्टी मिलती है। अब यह सब हाल देखकर समझ में आया कि छः सप्ताह की छुट्टी जो मिलती है, तो कुछ अधिक नहीं है सहसा इंजन की आवाज़ धीमी पड़ गई। प्लेन का अगला भाग भी नीचे की ओर झुक गया। बहुत नीचे समुद्र का विशाल वक्ष नज़र आने लगा। यह जानकर कि पहाड़ लाँघने की पारी समाप्त हो गई, मैंने एक दीर्घ निश्वास लिया। कोई सवा दस बजे हम लोग बुशायर जा पहुँचे। मुझे यहीं तक आना था। यहाँ एरोप्लेन से संबंध छूटता था, इसलिए सब प्लेनवालों को अनेक धन्यवाद देकर और हाथ मिलाकर उनसे विदा ली।

    मेरे जस्क पहुँचने की ख़बर पाकर तेहरान से मजलिस के सभापति ने मेरे संबंध में बुशायर के गवर्नर-जनरल को तार दे दिया था, इसलिए बुशायर में आतिथ्य-सत्कार में कोई कमी नहीं हुई।

    सात दिन बाद यहीं बुशायर में दूसरे एरोप्लेन से कवि और उनके साथी तथा जहाज़ द्वारा बंबई से श्री दिनशा ईरानी अपने दल-सहित पहुँचे। इन राज-अतिथियों के फारस-भ्रमण का इंतज़ाम बड़ी धूम से होने लगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विशाल भारत भाग 10 (पृष्ठ 261)
    • संपादक : बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : केदारनाथ चट्टोपाध्याय
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस
    • संस्करण : 1932
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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