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हिंदी के एक रूपदाता : रूपनारायण पांडेय

hindi ke ek rupdata ha rupnarayan panDey

अमृतलाल नागर

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हिंदी के एक रूपदाता : रूपनारायण पांडेय

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और अधिकअमृतलाल नागर

    रूपनारायण जी पांडेय को याद करते हुए स्वाभाविक रूप से भाषा की समस्या वाली बात मन में उनके लखनवी होने के कारण ही उभर आई। लखनऊ खड़ी बोली के उर्दू रूप का जाना माना गढ़ था। वहाँ जिन लोगों में 'अच्छी-ख़ासी मीठी ज़ुबान को संस्कृत शब्दों से 'बदसूरत बनाने की प्रेरणा उपजी, उनमें पांडेय जी का प्रमुख स्थान है। अपने एक लेख में—उन्होंने लिखा है

    नवाबी शहर लखनऊ सदा में उर्दू का गढ़ रहा हो या नहीं, किंतु आज से चालीस पचास वर्ष पहले अवश्य था। उस समय लखनऊ में हिंदी का प्रचार बहुत कम था, जिधर देखो उधर उर्दू का ही बोलबाला था। बातचीत में उर्दू, पत्र-व्यवहार मे उर्दू, अदालता में उर्दू। उर्दू के अख़बार और उर्दू की पुस्तकें ही अधिकतर छपती और बिकती थी। ववि सम्मेलन तो नाम का भी नहीं सुन पड़ता था, मुशायरे आए दिन हुआ करते थे।

    ऐसे वातावरण में रहते हुए वे उर्दू से क्यों प्रभावित हो? पं. रतननाथ दर सरशार के पड़ोस में रहकर भी वे हिंदी के कवि, लेखक और संपादन क्या हुए? यह प्रश्न सहज ही मन में उठता है। अनेक श्रेष्ठ संस्कृत और बंगला पुस्तकों के अनुवाद कर उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास को प्रभावित किया है। पड़ोस की उर्दू सीख कोसों—दूर बंगाल की भाषा के जादू से क्यों बँधे—वे ही नहीं सारा हिंदी भाषी प्रदेश क्यों बँधा, यह बात भी बराबर ध्यान में आती है। ज़ाहिर है कि उर्दू शैली में प्रस्फुटित हुए भाव हमारे जन-मानस नी वह भूख मिटाने में असमर्थ रहे होंगे जो संस्कृत, बंगला, मराठी और गुजराती पुस्तकों में हिंदी अनुवादों द्वारा उस समय तृप्त हुई। अपने प्रदेश की अपनी ही भाषा की एक शैली के साहित्य से वे एक हो सके और दूसरे प्रदेशों की भाषाओं के साहित्य में उन्हें एका मिला, यह समझने योग्य बात है।

    मैंने एक बार पांडेय जी से कुछ लिखित प्रश्न लिए, उनके उत्तर उन्होंने भी लिखकर ही देने की कृपा की थी। एक प्रश्न के उत्तर में प्रसंगवश उन्होंने लिया था।

    बंगला संस्कृत-बहुल भाषा होने के कारण हिंदी वालों के लिए सीखने में सहज थी। इसी से बंगला ने हिंदी और उसके लेखकों को प्रभावित किया।... बंगला के भाव और विचार प्राय उन्नत होते जा रह थे। उनमें संकीर्णता की जगह व्यापकता के चिह्न प्रकट होने लगे थे।

    संस्कृत के साथ हमारी सभी प्रादेशिक भाषाओं का बड़ा घना संबंध है, यहाँ तक कि द्राविड़ी भाषाओं के साथ भी। राष्ट्रीयता की चेतना जगाने में अकेली अँग्रेज़ी ही नही, देश की सांस्कृतिक इकाई का भी आख़िर कुछ योग अवश्य था, यह हमें नहीं भूलना चाहिए। यह सांस्कृतिक इकाई उनकी थी जो कश्मीर के अमरनाथ से लेकर दक्षिण के—रामेश्वरम्, कन्याकुमारी तक और द्वारका से कामरूप आसाम तक के दर्शन करने में अपने जन्म की सार्थकता मानने थे।

    उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य भारत आदि के नागरिक और साक्षर ग्रामवासी यदि नागरी लिपि और अपनी आध्यात्मिक साहित्यिक चेतना की परंपरा में चिर प्रवहमान संस्कृत शब्दों से युक्त खड़ी बोली को अपनाते हैं तो इसमें उनका दुराग्रह क्यों कर माना जा सकता है। क्या वे राष्ट्रीयता के नवजागरण-काल में अपनी सांस्कृतिक इकाई को भूल 'अच्छी ख़ासी मीठी ज़ुबान' के तंग दायरे में बँधे रह सकते थे?

    पहले भी लखनऊ में उर्दू की शिक्षा-दीक्षा मुसलमानों के बाद कायस्थो और कश्मीरी ब्राह्मणों के परिवार में ही होती थी। इनके पूर्वज नवाबी दरबारों से संबद्ध थे। इनके बाद इक्के-दुक्के उदाहरण छोड़कर बाक़ी लोग जो अपने बाल-बच्चों को पढ़ाते लिखाते थे, वे अँग्रेज़ी के साथ नागरी का ही पोषण कर रहे थे। पुराना दरबार उजड़ जाने से कायस्थो और कश्मीरी ब्राह्मणों में भी नागरी के प्रति धीरे-धीरे रुचि बढ़ रही थी। सन् 1887 में यहँ से कश्मीरियों का 'धर्म सभा अख़बार' साप्ताहिक और सन् 1889 ई. में मासिक 'कायस्थ उपदेश' प्रकाशित होने लगा था। वैसे सन् 1881 मे 'मासिक भारत दीपिका' और सन् 1882 मे दैनिक 'दिनकर प्रकाश' भी प्रकाश में चुके थे। लगभग यही समय पांडेय जी के जन्म का भी है।

    वे गेगासो के पांडेय थे, कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के 'विस्वामरजाद' के अनुसार 'झकझकौआ' पूरे बीस। घर में पठन-पाठन ब्रह्मकर्म होता था। पैसे से यह लोग हेटे थे। जैसे-तैसे ही गृहस्थी की गाड़ी खिंचती थी। इनके जन्म के एक साल बाद ही पिता का देहांत हो गया। पितामह ने ही इनका पालन-पोषण किया। वे ही इनके गुरु भी थे। जब ये तेरह वर्ष के हुए तब वे भी कालवश हुए। कच्ची उमर में ही इनपर रोटी कमाने का बोझ भी पड़ गया। शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई थी, बालक की चिंताओं का ठिकाना रहा।

    उन दिनों चौक के सोधी टोले में पं. ज्ञानेश्वर जी नामक एक प्रसिद्ध विद्वान रहते थे। पांडेय जी इनकी चरण में गए। उन्होंने निराश्रित बालक वो अपनी छत्रछाया में ले लिया। ज्ञानेश्वर जी के संबंध में बाते करते हुए पांडेय जी श्रद्धा-विभोर हो उठते थे। मुझे इस समय ठीक-ठीक याद नहीं रहा है कि किन कारणों से वे कैनिंग कॉलेज में संस्कृत पढ़ने के लिए भरती हुए। शायद ज्ञानेश्वर जी का स्वर्गवासी हो जाना ही इसका कारण था। वहाँ पं. रामकृष्ण जी शास्त्री इनके गुरु हुए। पांडेय जी प्रतिभावान, कठोर परिश्रमी और बड़े विनयशील थे। शास्त्री जी इन पर प्रसन्न हो गए। उत्तम शिक्षादान दिया। पांडेय जी के शब्दों में उनसे उन्हे शिक्षा और प्रशंसा तो प्राप्त हुई ही, स्वल्प शब्दों में विशेष भाव व्यक्त करने का गुण भी मिला। यह सब होते हुए भी ग़रीबी के कारण इनकी शिक्षा अधूरी ही रह गई। पेट पालन की चिंता में भटकने लगे। कविता करने का चसका पड़ चुका था। परंतु उसमें वाहवाही के सिवा और कुछ मिलता था। संस्कृत पुस्तकों, विशेष रूप से पुराणों के अनुवाद छपने लगे थे। इन्होंने प्रकाशकों में पत्र-व्यवहार आरंभ किया। होते-करते बंबई के निर्णय सागर प्रेस से इन्हें श्रीमद्भागवत का अनुवाद करने की साई मिली। इनका वह अनुवाद 'शुकोक्तिसुधा सागर' के नाम से प्रकाशित हुआ उससे इन्हें प्रशंसा मिली।

    उन्हीं दिनों शायद सन् 1907 मे बाबू गोपाललाल खत्री से पांडेय जी की भेट हुई। मेरे पितामह के साथ-साथ खत्री जी भी इलाहाबाद बैंक के ओहदेदारों में से एक थे। गोपाललाल जी जौनपुर के एक ज़मीदार कुल के थे। रईस और शौकीन मिज़ाज थे। उनके वेतन और ज़मीदारी की पूरी आमदनी खाने-पीने में ही उड़ जाती थी। फ़िज़ूलख़र्ची तब भी रूकी, बाद में उन्हें और उनके परिवार को उसका कठोर दुष्परिणाम भी भुगतना पड़ा। ख़ैर, यह होते हुए भी वे नागरी भाषा के बड़े प्रेमी थे। उन्होंने 'हमारी दाई' नामक एक उपन्यास भी लिखा था। लखनऊ आने पर उन्होंने यहाँ हिंदी का वातावरण प्रस्तुत करने के लिए एक अपील लिखी और पांडेय जी के यहाँ पहुँचे। पांडेय जी बाईस-तेईस वर्ष वे युवक थे। पर नाम कमा चुके थे। 'सरस्वती' में उनकी कविताएँ छपने लगी थी। आचार्य द्विवेदी जी तक उनकी गणना उत्तम कवियों में करते थे। पेट की ख़ातिर नाम कमाने के शौकीन रईसों के लिए भी लिखा करते थे। रईस आपस में पता लगा ही लेते थे कि अमुक ने अपने नाम से छपी कविताएँ, लेख, अभिभाषण आदि किससे लिखवाए। इस तरह पांडेय जी की ख्याति हर तरह से फैल रही थी। परंतु इस ख्याति से उनकी सृजनात्मक प्रतिभा का बल किसी हद तक क्षीण ही हुआ। वे उस गाय की तरह थे जो दूसरों द्वारा दुह लिए जाने के कारण स्वयं अपने बछड़े को हृष्ट-पुष्ट बना सकती थी। मिथ बंधुओं ने पांडेय जी के विषय में ठीक ही लिखा है।

    यदि जीविका साधनार्थ आपको अनुवादों पर ही बहुत अधिक ध्यान देना पड़ता, अथवा मौलिक ग्रंथों की ओर आप झुकते, तो संभवतः परमोच्च श्रेणी के कवि होते।

    ख़ैर, गोपाललाल जी खत्री के पैसे से पांडेय जी के संपादन में यहाँ से 'नागरी प्रचारक' नामक मासिक पत्र प्रकाशित हुआ। उसके 'मोटो' के रूप में पांडेय जी ने एक छंद लिखा था।

    अर्थ निकरत है, अनय करत,

    बर बरन हिय, हिय में बिचारिये,

    शुद्ध सरस, पद कोमल अमल अग

    गूढ़ धुनि, पुनि बहु भूषण सँवारिये।

    सुंदर सुलच्छन, बिलच्छन चमतकार,

    विगत विकार, ताहि काहे को बिसारिये?

    नागर निरादर सो नागरी सी छीन

    यहि नागरी गरीबिनि कौ नेकु तो निहारिये।

    इसकी व्याख्या स्वयं पांडेय जी ने इस प्रकार की है।

    'इस छंद में नागरी की नागरी (नारी) से तुलना की गई है। जैसे नागरी (नारी) से अर्थ अर्थात् मतलब निकलता है वैसे ही इस नागरी से अर्थ निकलता है। जैसे वह नागरी कोई अनर्थ या बुरा काम नहीं करती, वैसे ही इस नागरी की लिखावट से उर्दू की तरह अर्थ का अनर्थ नहीं होता, कुछ का कुछ नही पढ़ा जाता। उस नागरी का वर्ण (रंग) हृदयहारी होता है और इस नागरी के वर्ण (अक्षर) भी सौंदर्य से हृदय को हरन वाले है। वह नागरी शुद्ध (सच्चरित्र) है और यह भी शुद्ध है। वह नागरी सरस यानी रसीली है तो इस नागरी में भी नवरस है। इसके पढ़ने से रस (आनंद) मिलता है। उसके पैर कोमल हैं इसकी कविता के भी पद कोमल है। उसके हाथ-पैर आदि अंग निर्मल-निर्दोष है इसके भी अंग (दशाग साहित्य) निर्मल-निर्दोष है। उसकी ध्वनि अर्थात् आवाज़ कुल कामिनी होने के कारण सबको सुनाई नहीं पड़ती, इसकी भी कविता में 'ध्वनि गूढ़' रहती है। उस नागरी को अनेक आभूषण जैसे सजाते है वैसे ही नागरी का भी अनेक शब्दार्थालंकारों से सजाया जा सकता है। दोनों ही सुंदर हैं। उस नागरी में सब अच्छे लक्षण है तो यह नागरी भी सुंदर लक्षणों से अथवा अच्छे लक्षणों से युक्त है। दोनों का चमत्कार विलक्षण है। आप लोग विचारिए, फिर ऐसी नागरी को क्यों भूले हुए हैं? जैसे नागर (नायक) से निरादर पाकर नागरी (नायिका) दिन-दिन दुबली होती जाती है। वैसे ही नागरी (नगर निवासियों) के लिए निरादर से क्षीण होती चली जा रही इस गरीब नागरी की ओर तनिक तो देखिए—इसकी सुधि लीजिए।

    पुरानी और नई राजभाषाओं के बोझ-दबाव से पीड़ित बहुजन की भाषा के लिए तत्कालीन युवक पांडेय की भावना को संकीर्ण अर्थ में सांप्रदायिक मानने के लिए मैं हरगिज़ तैयार नहीं। पांडेय जी बड़े उदार थे। उर्दू साहित्य के प्रति वे तनिक भी संकीर्ण नहीं थे। इनके संपादकत्व में निकलने वाली 'माधुरी' और 'सुधा' की पुरानी फ़ाइलें उलटने पर कोई भी यह देख सकता है कि उन्होंने उर्दू साहित्य से संबंधित कितने ही प्रशंसात्मक लेख छापे थे। अपनी मृत्यु से केवल चार दिन पहले 'शतदल' नामक संस्था की एक गोष्ठी में एक मुसलमान की ग़ज़लों पर रीझकर उन्होंने तत्काल ही उनकी प्रंशसा में एक छंद लिखकर दिया था।

    बंगला पुस्तकों के अनुवादकों में उनका स्थान सर्वश्रेष्ठ है। पेट गरज-बाबरी से बंधकर भी वे अपना उद्देश्य भूले। अल्लम-गल्लम भरने के बजाए वे यहाँ का श्रेष्ठ साहित्य ही हिंदी में लाए। इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं कि रूपनारायण पांडेय 'कविरत्न' के पुण्य प्रताप से ही हिंदी का मौलिक कथा-साहित्य पनपा। भाषा ऐसी सरल और मुहावरेदार लिखते थे कि वह दूसरों के लिए आदर्श बन गई।

    'नागरी प्रचार' के अतिरिक्त जब प्रसाद जी की प्रेरणा से मासिक 'इंदु' वा प्रकाशन आरंभ करने की योजना बनी तो महाकवि के आग्रह से वे ही उसके संपादक नियुक्त हुए। भारत धर्म महा मंडल ने इन्हें 'कविरत्न' की उपाधि देकर अपनी पत्रिका निगमागम चंद्रिका का संपादक बनाया। 'माधुरी' और सुधा' पत्रिकाएँ इन्ही के संपादक में ऐतिहासिक महत्त्व अर्जित कर पाई। जिन दिनों चारों ओर में महाकवि निराला जी का विरोध हो रहा था, उन दिनों 'माधुरी' उनकी कविताएँ मुख पृष्ठ पर छापती थी।

    निराला जी उनका बड़ा आदर करते थे। पांडेय जी ही ऐसे थे जो महाकवि की रचनाओं में काट छाट कर सकते थे। उनके 'पत और पल्लव' नामक सुप्रसिद्ध लेख का एक पैराग्राफ़, जो पांडेय जी की दृष्टि में कटु था, महाकवि के सामने ही लाल स्याही से कट गया। महाकवि बड़े उत्तेजित हुए परंतु पांडेय जी के मोठे किंतु दृढ़ तर्क के आगे चुप हो गए।

    प्रेमचंद की एक कहानी का शीर्षक था 'पौपुजी', मुहावरे की दृष्टि से पांडेय जी को ग़लत जचा, काटकर 'पैपुजी' लिख दिया।

    लेखक नया है या पुराना, इसकी चिंता करके वे वही रचनाएँ छापते थे जो उनकी नज़र में चढ़ जाती थी। अवधी बोली के श्रेष्ठ कवि और यथार्थवादी कहानियाँ लिखने में बेजोड़, हमारे आदरणीय मित्र बलभद्रजी दीक्षित 'पढ़ीस' के स्वर्गवासी हो जाने पर बंधुवर डॉ. रामविलास शर्मा ने 'माधुरी' वा 'पढ़ीस' अंक निकालने की प्रार्थना की। पांडेय जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, यही नहीं, उस अंक का संपादक भी भाई रामविलास जी को ही बना दिया। जब उस अंक के प्रकाशन की योजना होने लगी तो एक स्वनामधन्य आलोचक, जिनकी विद्वत्ता का अनुमान केवल इसी से लगाया जा सकता है कि वे पब्लिसिटी के अनुसार ही किसी लेखक का छोटा-बड़ा होना मानते थे, एक सज्जन से बोले, क्या पढ़ीस जी इतने बड़े लेखक थे कि उनकी स्मृति में 'माधुरी' का विशेषांक निकाला जाए?' उन स्वनामधन्य प्रोफ़ेसर समालोचकाचार्य की न्यायबुद्धि के आगे पांडेय जी की न्यायप्रियता और उदारता ऐसी लगती है जैसे चूहे के आगे पहाड़।

    वे जीवन भर सीधे-सादे एक-से बने रहे। गर्मी से धोती, क़मीज़, वास्कोट, जाड़े में कोट। यही उनकी पोशाक थी।

    मुझपर उनका स्नेह पुत्रवत् था। उनके कथनानुसार मेरे पितामह उन्हें पुत्रवत् मानते थे। सन् '38 में जब वे चार महीनों की तीर्थयात्रा के बहाने भारत भ्रमण के वास्ते गए तो 'माधुरी' का काम-काज मुझे सौंप गए थे। एक कसक रह गई—सन् '48 मे जब मैं फ़िल्मों का काम छोड़ लखनऊ आया तब दो-तीन बार उन्होंने कहा, देखो, तुम मुझसे संस्कृत पढ़ लो। तुम्हारे बड़े काम आएगी। मैं अभागा उसके लिए समय निकाल पाया। अब कौन उतने प्यार से शिक्षादान देने का आग्रह करेगा।

    अपने संबंध में वे पब्लिसिटी की धूमधाम पसंद नहीं करते थे। एक बार मैंने किसी लेख में उन्हे आचार्य पांडेय जी लिखकर संबोधित किया। 'माधुरी' कार्यालय से लौटते समय वे मेरे घर आए, बोले, भैया, छोटे ही सही पर कहो तो तुम्हारे पैर छू लूँ, तुम हमें उपाधिग्रस्त करो। एक 'कविरत्न' टाइटिल मिल गया वही बहुत है।

    सन् '50 मे उनकी 66वीं वर्षगाँठ के अवसर पर लखनऊ के सुकवि बंधु निशक जी ने 'शतदल' की ओर से उनके सम्मानार्थ एक आयोजन करना चाहा। वे कन्ना काट गए। निशक जी ने मुझसे कहा, तुम आयोजन करो, उन्हें राज़ी करने का ज़िम्मा मेरा रहा। मैंने उन्हीं के घर पर 'शतदल' की एक गोष्ठी करने की सलाह दी। गोष्ठी के अंत मे निशक जी ने फिर अपना प्रस्ताव रखा। पांडेय जी ना-ना करते ही रह गए, परंतु मैंने उनकी एक चलने दी। हारकर उठकर अंदर चले गए, कहा, जो चाहो सो करो।

    ऐसे सरल, निर्मल, कर्मठ व्यक्ति अब कहा मिलेंगे?

    स्रोत :
    • पुस्तक : जिनके साथ जिया (पृष्ठ 46)
    • रचनाकार : अमृतलाल नागर

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