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एक दिन

ek din

जानकीवल्लभ शास्त्री

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और अधिकजानकीवल्लभ शास्त्री

    [आचार्य जानकीवल्लभ जी की विद्वान् और कलाकार मनीषा ने नलिन जी को जिस तरह आत्मसात् किया है, वह सर्वथा सत्य और सुंदर के समीप है, शिव बनकर!—जग के आँके-बाँके मग पर मुँह उठाए चलते जाना सबके बूते के बाहर है। कुछ प्रभाव पपड़ी छोड़ने लगते हैं तो जैसे नासूर को नाख़ून लग जाता है। कुछ का नाल ही गड़ जाता है। नलिनजी का प्रभाव ऐसा ही था। उनके प्रकृष्ट भावों की बौछार से रुखाई भींग गई थी।]

    ***

    कोई बीस साल पहले, पुस्तक भंडार की जयंती के अवसर पर, हम पहली बार मिले थे। उस समय उनके साथ डॉ० देवराज उपाध्याय भी थे। ऐसे मिले थे कि यह नहीं लगा था, वह नभतल पर विचरते हैं और मैं भूतल पर; वह तारे तोड़ते हैं और मैं फूल चुनता हूँ।

    वह तब भी गंभीर थे, मैं तब भी चंचल था। पर उनकी गंभीरता एकाकिनी थी, मेरी चंचलता का अंतर धूमिल था। वह निस्तरंग सागर-से थे, मुझमें भी चंद बूँदों से प्यास बुझा लेने की व्याकुलता थी।

    हम ऐसे मिले थे जैसे... पर जब वह हमेशा के लिए बिछुड़ गए तब अपना तब मालूम हुआ। अब अपने विश्रृंखल एवं आत्म-विरोधी व्यकित्व से उनके संश्लिष्ट तथा उदात्त व्यक्तित्व की तुलना करूँ तो जीभ तिड़ी-बिड़ी होने लगे; ताव दे तो तालू से सट जाए।—उन्होंने मानवात्मा के व्यापक और गहन क्षेत्रों की अधांत यात्रा की थी। उनकी जिज्ञासा, उनकी संवेदना, उनकी क्षमता अपनी छाँह भी तो नहीं छूने देती।

    व्यक्तिगत जीवन में जाने-अनजाने हम कितने क्षुद्र, अ‌द्भुत, क्षणिक और स्थायी प्रभावों से इकहरे-दुहरे होते रहते हैं। जग के आँके-बाँके मगर पर मुँह उठाए चलते बने आन। सबके बूते के बाहर है। कुछ प्रभाव पपड़ी छोड़ने लगते हैं तो जैसे नासूर को नाख़ून लग जाता है। कुछ का नाल ही गढ़ जाता है। नलिनजी का प्रभाव ऐसा ही था। उनके प्रकृष्ट भावों की बौछार से रुखाई भीग गई थी।

    तत्त्व-महत्त्व की बात सहज भाव से और अतिशय साधारणा को असाधारण ढंग से अभिव्यक्त करने की अद्भुत शक्ति थी नलिनजी में।

    अनुशीलन और अनुसंधान की-सी गंभीरता के साथ बढ़ जैनेंद्र की सर्वथा अपनी शैली का पूर्वाभास प्रो० कृपानाथ मिश्र में बताते और 'देहाती दुनिया' को हिंदी का प्रथम आँचलिक उपन्यास यों उद्‌घोषित करते थे जैसे वह इतिहास का संशोधन कर कोई पीढ़ी-दर-पीढ़ी कही गई बात दुहरा भर रहे हों।

    वह प्रकाश-पुंज थे, प्रेरणा-स्रोत थे। हो सकते थे, प्रकाशित। वह समझते थे नलिनजी यों ही धाक जमाए हुए है; यों ही उनका डंका पिट रहा है; यों ही उनका रंग चढ़ा हुआ है।

    उनकी आधुनिकता सघन शास्त्रीयता से फूटी थी; वह बाणभट्ट पर लिखते समय भी आचार्य शिवपूजन सहाय की गद्यशैली को भूलते थे।

    उनके निष्कंप निष्कर्षों से आप असहमत हो सकते थे, उनकी निष्कंपता को चुनौती देना असंभव था।

    आरंभ से ही वह मुझ पर अपनी कृपा बरसाते रहे थे। बाज़-बाज़ दफ़ा मैं भीगता था, पानी-पानी हो जाता था।

    एक दिन की बात है। सर्दी का मौसम था। वह सम्मेलन भवन के बाह्य प्रांगण में विराज रहे थे। उनके इर्द-गिर्द कई कुर्सियाँ पड़ी थीं। लोग-बाग बैठे कहकहे लगा रहे थे। दीक्षितजी और दामोदरजी तो अवश्य ही थे। और सूरतें अजनबी थीं। ऐसे में मैं पहुँचा और उनकी एक हल्की-सी पकड़ में मैं गिरफ़्त हो गया। जहाज़घाट से सीधे चल कर आया था। थोड़ा थक भी गया था। कपड़े उतार कर हाथ-मुँह धोने की इच्छा हो रही थी। पर सहसा नलिनजी ने वह तान छेड़ दी कि मैं अपना ध्रुपद-धमार भूल गया।

    नलिनजी ने और नरेश ने जब-तब निराला पर जो कुछ लिखा है, मैं समझता हूँ बिहार ही नहीं, समूचे हिंदी-संसार में उससे स्पर्धा करने के योग्य कुछ भी नहीं लिखा गया। फिर भी जाने क्यों, नलिनजी को यह विश्वास था कि निराला के संबंध में मैं वेदाः प्रमाणम् हूँ।

    बादल आते-जाते हैं; गरजने-तरजते हैं; पंछी पर फैलाए गाते चले जाते हैं, पर आकाश मौन रहता है।

    काली रात में बदन पर झलमल करती पसीने की बूँदों की तरह तारे जगमग कर उड़ते हैं, उजली में साधना की सिद्धि की तरह हँसी-मुस्कान को चाँदनी छिटकती है पर आकाश मौन रहता है।

    एक दिन ब्राह्म मुहूर्त में उगते डूबतों के संधि-रंध्र से एक अरुण आह्वान आता है; सूर्य का तूर्य्य निनादित होता है; आलोक की तीसरी दृष्टि खुल जाती है; मौन की ज्वाल गलने-ढलने लगती है।

    और आकाश-वाणी :

    ये स्नातकोत्तर कक्षा के छात्र हैं; ये महाप्रबंध-लेखक। मैं इन्हें आपके पास भेज रहा था—मुजफ़्फ़रपुर। निराला-संबंधी कुछ शंकाएँ हैं। समुचित समाधान की अपेक्षा है।

    हाँ, मैं और स्पष्ट हो लूँ, आपसे पहले त्रिलोचनजी और जयकिशोरजी को भी कष्ट दे चुका हूँ।

    मेरे चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। क्या आकाश, दिन-दहाड़े, इतने विद्वानों और विद्यार्थियों के बीच, मेरी मिट्टी पलीद करना चाहता है? किंतु ऐसे कुचक्र का कोई संकेत उसकी प्रफुल्ल आकृति में नहीं, प्रसन्न प्रकृति में नहीं। फिर?

    मैं सँवरूँ, सँभलुँ, खाँस-खखार कर गला साफ़ करूँ, इसके पहले ही नलिनजी बोल उठे :—

    अब जैसे ये पंक्तियाँ हैं...

    पंक्तियाँ 'राम की शक्ति-पूजा' की थीं। मेरी हैसियत ख़ुलासा हो गई। नलिनजी आख्याता है, व्याख्याता। वह आलोचक हैं, मैं टीकाकार। सोचा :—

    I even I, am he who knoweth the roads.

    Through the sky and the wind thereof is my body.

    पंक्तियाँ उलट-पुलट कर कही जा रही थीं। मैंने सीधी कर दीं तो उन्होंने 'अनामिका' में वैसी ही छुपी होने की बात बताई। मैंने 'असंभव' कहा तो सांध्य-गोष्ठी के लिए आमंत्रित हो गया। रेडियो स्टेशन से ठीक समय पर उनके घर पहुँचा। छात्रों समेत नलिनजी मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। 'अनामिका' उनके हाथ में थी। बोले—शास्त्रीजी, आप ठीक कह रहे थे; किंतु...फिर भी... अर्थ...

    मैंने यथाशक्ति वाच्य, लक्ष्य, व्यंग्य—सब अर्थ बतला दिए। वह नई-नई पंक्तियाँ निकालते गए, मैं...।

    यह क्रम काफ़ी देर तक चला। मैंने कहा—नलिनजी, 'राम की शक्ति-पूजा' मेरे सामने लिखी गई थी। उस रोज़ कहीं से कुछ पैसे गए थे। निरालाजी बाज़ार गए और दो मोटी-मोटी कारियाँ ख़रीद लाए। तीसरे पहर नहा-धोकर लिखने बैठे और महज़ घंटे भर बाद आरंभ की समास-बहुल सारी पंक्तियाँ लिखकर हँसते हुए कमरे से बाहर निकले और बोले—'देखो, आरंभ कैसा है?

    कुँअर चंद्रप्रकाश सिंह और परमानंद वाजपेयी के साथ मैं बाहर बैठा था। तब संस्कृत में ही श्वास-उच्छ्वास लेता था। मुझे पंक्तियाँ प्रौढ़ एवं पूर्ण प्रतीत हुई। मैंने प्रसन्नता प्रकट की तो बोले :—'कुछ क्लिष्ट है, सादगी की तरफ़दारी करने वाले नाक-भौं सिकोड़ेंगे।' हम तीनों ने एक स्वर से आग्रह किया होता तो संभव है, निरालाजी कुछ पद बदल देते। 'राम की शक्ति-पूजा' के वर्त्तमान रूप का उत्तरदायी हमारा कौतुकी कुचक भी हो सकता है। निरालाजी ने अपनी परेशानी जताई कि राम ने राजीवनयन होने के कारण अपनी एक आँख चढ़ाकर कमल की कमी पूरी करनी चाही, यह कल्पना 'राम की शक्ति-पूजा' में भव्यता के साथ स्वरूप प्राप्त करेगी, पर क्या यह अंतर्गगन की अव्यक्त गिरा का आलोड़न भर होगा या इस किरण के पीछे शास्त्र की उद्वेलित ज्योति भी होगी?...आपने 'अद्भुत रामायण' देखी है?

    मैंने कहा, मेरे पिता-श्री पंडित ही नहीं, राम-भक्त भी हैं। मैंने अद्‌भुत रामायण ही क्यों, आनंद रामायणा भी देखी है। पर मुझे यह प्रसंग कहीं नहीं मिला। हो भी तो अभी मुँदी स्मृति उन्मीलित नहीं हो रही। हाँ, शिवमहिम्नः स्तोत्रम् में अवश्य यह सुरभित सुषमा है :—

    हरिस्ते साहस्र कमलवलिमाधाय पदयो

    र्यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।

    और 'कृत्तिवास' में भी इसका स्निग्ध उच्छ्वास है, कुछ ऐसा ही आभास अवचेतन मन पर बिछल रहा है।

    निरालाजी को प्रत्यभिज्ञा-सी हुई। उनकी निरानंद आकृत्ति पर जैसे आनंद की धार दौड़ गई।

    नलिनजी, मैं यह सब यों ही नहीं कह रहा। मैं निराला को महिम्न या कृत्तिवासी रामायण की याद दिलाऊँ, यह सब कुछ जँचता है? वह तो परंपरा और प्रतिभा के अद्भुत समन्वय हैं। सबके सामने वह यों ही मुझे गौरव देकर गर्वित होते हैं। कुछ वैसी ही बात आज आपने भी की है।

    आपके भीतर ज्ञान का क्षीर सागर लहरा रहा है। आपकी प्रज्ञा मधुमती है। तट पर बैठने वाले कुछ छींटे पा जाते हैं तो अपने बबूल-बदन में पारिजात के फूल दिखलाने लगते हैं।

    आपने अपने प्रिय जनों के बीच मुझे गौरव देकर अपनी विनय ही नहीं प्रकट की, बोध की वह अव्यय गंध भी प्रकाशित की है जिसके अभाव में अपनी अबोधता निराला की दुर्बोधता का दुर्दांत रूप ग्रहण कर लेती है। 'भारत-भारती' का पहलवान वेस्टलैंड का कचूमर निकालने लगता है!!

    मैं कुछ और कहूँ इसके पूर्व ही नलिनजी ने हँसते-हँसते कॉफी का प्याला मेरी ओर बढ़ा दिया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नई धारा (पृष्ठ 84)
    • रचनाकार : जानकीवल्लभ शास्त्री
    • संस्करण : 1961

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