पोख तुखार न विआपई

pokh tukhar na wiapi

गुरु अर्जुनदेव

गुरु अर्जुनदेव

पोख तुखार न विआपई

गुरु अर्जुनदेव

पोख तुखार विआपई कंठ मिलिआ हर नाह॥

मन बेधिआ चरनारबिंद दरसन लगड़ा साह।

ओट गोविंद गोपाल राए सेवा सुआमी लाह॥

बिखिआ पोह सकई मिल साधू गुण गाह।

जह ते उपजी तह मिली सची प्रीत समाह॥

कर गह लीनी पारब्रहम बहुड़ विछुड़ीआह।

बार जाउ लख बेरीआ हर सजण अगम अगाह॥

सरन पई नाराइणै नानक दर पईआह।

पोख सोहंदा सरब सुख जिस बखसे वेपरवाह॥

पूस के महीने में सर्दी अपने यौवन पर होती है, लेकिन जिस आत्मारूपी स्त्री को प्रभु प्रियतम का संग प्राप्त होता है, उसको दुखों की सर्दी नहीं सताती। उसका मन हरि के चरण-कमलों से ऐसे जुड़ा रहता है जैसे उनसे बिंध गया हो और मालिक के दर्शन ही उसकी साँसों का आधार बन जाते हैं। वह सृष्टि के सिरजनहार और प्रतिपालक के सहारे जीती है और उसकी सेवा का फल प्राप्त करती है। माया उसे प्रभावित नहीं कर पाती और वह साधु की संगति में हरि की महिमा गाने में जुटी रहती है। सच्ची और पवित्र प्रीति में मग्न वह अंत में अपने स्रोत प्रभु में जा समाती है। एक बार परमात्मा उसका हाथ थामकर उसे अपना बना ले, तो फिर उसे कभी वियोग नहीं सहना पड़ता। गुरु साहिब कहते हैं कि मैं लाख बार उस अगम और अथाह हरि पर क़ुरबान जाता हूँ। परमेश्वर अपने द्वार पर, अपनी शरण में आए जीवों के प्रति अपने बिरद का पालन करता है। जिसे उस बेपरवाह प्रभु की बख़श प्राप्त हो जाए, उसके लिए पूस का महीना रसमय हो जाता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : गुरु अर्जुन देव (पृष्ठ 241)
  • संपादक : महिंदर सिंह जोशी
  • रचनाकार : गुरु अर्जुनदेव
  • प्रकाशन : राधास्वामी सत्संग ब्यास
  • संस्करण : 2012

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