संतो मरणै मंगल मीठा

santo maranai mangal mitha

रज्जब

रज्जब

संतो मरणै मंगल मीठा

रज्जब

संतो मरणै मंगल मीठा, सो गुरु मुख विरले दीठा।

जो प्रथम माँडते मूये, सो राम कहण को हूये।

दूजे देह जु त्यागी, सो आतम राम हिं लागी॥

तीजे आतम भूले, तिन सुरति सु पाया मूलै।

चौथे चिंतन कोई, तहाँ रज्जब एक दोई॥

संतो! मरने का फल मधुर और मंगलमय होता है। उसे किसी गुरुमुख बिरले साधक ने ही देखा है। जो मरने से पहले ही संसार से मर जाता है अर्थात् शव के समान हर्ष-शोकादि से रहित हो जाता है, वही राम भजन करने के लिए कटिबद्ध होता है और उसकी दूसरी अवस्था में जब देह त्याग देता है, तब वह जीवात्मा राम के स्वरूप में जुड जाता है। तीसरे जो अपने को भी भूल जाता है, तब उसकी वृत्ति अपने मूल ब्रह्म को प्राप्त कर लेती है। चौथे जब कोई ब्रह्मात्मा का अभेद चिंतन करने लगता है तब उस अवस्था में एक और दो यह भेद नहीं रहता।

स्रोत :
  • पुस्तक : श्री रज्जब वाणी (पृष्ठ 1036)
  • संपादक : रत्न स्वामी नारायणदास
  • रचनाकार : रज्जब
  • प्रकाशन : संत साहित्य प्रकाशन
  • संस्करण : 1980

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