रे नर तोहीं केतिक धीरकारों

re nar tohin ketik dhirkaron

दरिया (बिहार वाले)

दरिया (बिहार वाले)

रे नर तोहीं केतिक धीरकारों

दरिया (बिहार वाले)

रे नर तोहीं केतिक धीरकारों।

धीक-धीक जीवन जीये जग माहीं, मैं-मैं करत हमारो॥

विषय भाव रस रहि-रहि माँगत, करत गर्व हँकारो।

उलटि लगे नहिं चरण कमल पर, लिपटत फिरे बिकारो॥

गर्भबास जिन्हि जल जावन दिन्हाँ, रचि-रचि पिंड सँवारो।

मरकट मुट्ठी ज्यों गहि के लागेव, ब्याधा बान सर मारो॥

चारो पन गवायो गर्वी, भर्मि भर्मि भै हारो।

कहे ‘दरिया' सर्वस परबस, हाथ जुवाड़ी झारो॥

मनुष्य! तुझे कितना धिक्कारूँ? इस संसार में तुम्हें धिक्कार है, क्योंकि तू हमेशा मैं-मैं करता फिरता है। तू बार-बार गर्व के साथ विषय-वासनाओं का रस बड़े चाव से चखता है। अंतर में सतगुरु के चरण कमलों को पकड़ने के बजाय तू इन बेकार की चीज़ों में फँसा हुआ है। गर्भ में परमात्मा ने दया करके पानी की बूँद से उसी प्रकार तुम्हारा सुंदर शरीर बनाया था, जैसे दूध में जामन डालकर दही बनाया जाता है। लेकिन संसार में आकर तुम उसे भूल गए और तुमने अपने आप को यहाँ उसी प्रकार फँसा लिया है, जैसे बंदर एक तंग मुँह वाले बर्तन में अपनी मुट्ठी फँसा लेता है और शिकारी उसको वाणों से मार देता है। तुमने अपने जीवन की चारों अवस्थाएँ संसार में घमंड से भटकते-भटकते गँवा दीं और जैसे एक जुआरी बाज़ी हारकर हाथ झाड़कर ख़ाली चला जाता है, वैसे ही तुम अपना सब कुछ हारकर अब काल के अधीन हो गए हो।

स्रोत :
  • पुस्तक : दरिया (बिहार वाले) (पृष्ठ 180)
  • संपादक : काशीनाथ उपाध्याय
  • रचनाकार : संत दरिया (बिहार वाले)
  • प्रकाशन : राधास्वामी सत्संग ब्यास, पंजाब
  • संस्करण : 2016

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