Font by Mehr Nastaliq Web

हरि परिहरि भरमत मति मेरी

hari parihari bharmat mati meri

संत परशुरामदेव

अन्य

अन्य

संत परशुरामदेव

हरि परिहरि भरमत मति मेरी

संत परशुरामदेव

और अधिकसंत परशुरामदेव

    हरि परिहरि भरमत मति मेरी।

    कहत पुकारि दुरावत नाहिन, यह तौ प्रगट फिरत नहिं फेरी॥

    श्रीगुरु सबद मानत कबहूँ, उमगि चलत अपनी हरि हेरी।

    तजि निज रूप विषय मन उरझत, हित सौं चढ़ि बूड़न की बेरी॥

    नाहिन संक करत काहू की, चरत निसंक कूप तैं नेरी।

    'परसा' छिटकि परी भव जल में, अब कैसें पैयत सो हेरी॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : कल्याण पत्रिका (संतबानी अंक) (पृष्ठ 278)
    • संपादक : हनुमान प्रसाद पोद्दार
    • रचनाकार : संत परशुरामदेव
    • प्रकाशन : गीता प्रेस गोरखपुर
    • संस्करण : जनवरी 1955

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए