मियाँ नसीरुद्दीन
miyaan nasiruddin
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
साहबों, उस दिन अपन मटियामहल की तरफ़ से न गुज़र जाते तो राजनीति, साहित्य और कला के हज़ारों-हज़ार मसीहों के धूम-धड़क्के में नानबाइयों के मसीहा मियाँ नसीरुद्दीन को कैसे तो पहचानते और कैसे उठाते लुत्फ़ उनके मसीही अंदाज़ का!
हुआ यह कि हम एक दुपहरी जामा मस्जिद के आड़े पड़े मटियामहल के गढ़ैया मुहल्ले की ओर निकल गए। एक निहायत मामूली अँधेरी-सी दुकान पर पटापट आटे का ढेर सनते देख ठिठके। सोचा, सेवइयों की तैयारी होगी, पर पूछने पर मालूम हुआ ख़ानदानी नानबाई मियाँ नसीरुद्दीन की दुकान पर खड़े हैं। मियाँ मशहूर हैं छप्पन क़िस्म की रोटियाँ बनाने के लिए।
हमने जो अंदर झाँका तो पाया, मियाँ चारपाई पर बैठे बीड़ी का मज़ा ले रहे हैं। मौसमों की मार से पका चेहरा, आँखों में काइयाँ भोलापन और पेशानी पर मँजे हुए कारीगर के तेवर।
हमें गाहक समझ मियाँ ने नज़र उठाई—‘फ़रमाइए।’
झिझक से कहा—‘आपसे कुछ एक सवाल पूछने थे—आपको वक़्त हो तो...’
मियाँ नसीरुद्दीन ने पंचहज़ारी अंदाज़ से सिर हिलाया—‘निकाल लेंगे वक़्त थोड़ा, पर यह तो कहिए, आपको पूछना क्या है?’
फिर घूरकर देखा और जोड़ा—‘मियाँ, कहीं अख़बारनवीस तो नहीं हो? यह तो खोजियों की ख़ुराफ़ात है। हम तो अख़बार बनाने वाले और अख़बार पढ़नेवाले—दोनों
को ही निठल्ला समझते हैं। हाँ—कामकाजी आदमी को इससे क्या काम है। ख़ैर, आपने यहाँ तक आने की तकलीफ़ उठाई ही है तो पूछिए—क्या पूछना चाहते हैं!’
‘पूछना यह था कि क़िस्म-क़िस्म की रोटी पकाने का इल्म आपने कहाँ से हासिल किया?'
मियाँ नसीरुद्दीन ने आँखों के कंचे हम पर फेर दिए। फिर तरेरकर बोले—‘क्या मतलब? पूछिए साहब—नानबाई इल्म लेने कहीं और जाएगा? क्या नगीनासाज़ के पास? क्या आईनासाज़ के पास? क्या मीनासाज़ के पास? या रफ़ूगर, रंगरेज़ या तेली-तंबोली से सीखने जाएगा? क्या फ़रमा दिया साहब—यह तो हमारा ख़ानदानी पेशा ठहरा। हाँ, इल्म की बात पूछिए तो जो कुछ भी सीखा, अपने वालिद उस्ताद से ही। मतलब यह कि हम घर से न निकले कि कोई पेशा अख़्तियार करेंगे। जो बाप-दादा का हुनर था वही उनसे पाया और वालिद मरहूम के उठ जाने पर आ बैठे उन्हीं के ठीये पर!’
‘आपके वालिद...?’
मियाँ नसीरुद्दीन की आँखें लमहा-भर को किसी भट्टी में गुम हो गईं। लगा गहरी सोच में हैं—फिर सिर हिलाया—‘क्या आँखों के आगे चेहरा ज़िंदा हो गया! हाँ हमारे वालिद साहिब मशहूर थे मियाँ बरकत शाही नानबाई गढ़ैयावाले के नाम से और उनके वालिद यानी कि हमारे दादा साहिब थे आला नानबाई मियाँ कल्लना’
‘आपको इन दोनों में से किसी—किसी की भी कोई नसीहत याद हो!’
‘नसीहत काहे की मियाँ! काम करने से आता है, नसीहतों से नहीं। हाँ!’
‘बजा फ़रमाया है, पर यह तो बताइए-ही-बताइए कि जब आप (हमने भट्टी की ओर इशारा किया) इस काम पर लगे तो वालिद साहिब ने सीख के तौर पर कुछ तो कहा होगा।’
नसीरुद्दीन साहिब ने जल्दी-जल्दी दो-तीन कश खींचे, फिर गला साफ़ किया और बड़े अंदाज़ से बोले—‘अगर आपको कुछ कहलवाना ही है तो बताएँ दिए देते हैं। आप जानो जब बच्चा उस्ताद के यहाँ पढ़ने बैठता है तो उस्ताद कहता है—
कह, ‘अलिफ़’
बच्चा कहता है, ‘अलिफ़’
कह, ‘बे’
बच्चा कहता है, ‘बे’
कह, ‘जीम’
बच्चा कहता है, ‘जीम’
इस बीच उस्ताद ज़ोर का एक हाथ सिर पर धरता है और शागिर्द चुपचाप परवान करता है! समझे साहिब, एक तो पढ़ाई ऐसी और दूसरी...। बात बीच में छोड़ सामने से गुज़रते मीर साहिब को आवाज़ दे डाली—‘कहो भाई मीर साहिब! सुबह न आना हुआ, पर क्यों?’
मीर साहिब ने सिर हिलाया—‘मियाँ, अभी लौट के आते हैं तो बतावेंगे।’
‘आप दूसरी पढ़ाई की बाबत कुछ कह रहे थे न!’
इस बार मियाँ नसीरुद्दीन ने यूँ सिर हिलाया कि सुकरात हों—‘हाँ, एक दूसरी पढ़ाई भी होती है। सुनिए, अगर बच्चे को भेजा मदरसे तो बच्चा—
न कच्ची में बैठा,
न बैठा वह पक्की में
न दूसरी में—
और जा बैठा तीसरी में—हम यह पूछेंगे कि उन तीन जमातों का क्या हुआ? क्या हुआ उन तीन किलासों का?’
अपना ख़याल था कि मियाँ नसीरुद्दीन नानबाई अपनी बात का निचोड़ भी निकालेंगे पर वह हमीं पर दाग़ते रहे—‘आप ही बताइए—उन दो-तीन जमातों का हुआ क्या?’
‘यह बात मेरी समझ के तो बाहर है।’
इस बार शाही नानबाई मियाँ कल्लन के पोते अपने बचे-खुचे दाँतों से खिलखिला के हँस दिए! ‘मतलब मेरा क्या साफ़ न था! लो साहिबो, अभी साफ़ हुआ जाता है। ज़रा-सी देर को मान लीजिए—
हम बर्तन धोना न सीखते
हम भट्टी बनाना न सीखते
भट्टी को आँच देना न सीखते
तो क्या हम सीधे-सीधे नानबाई का हुनर सीख जाते!’
मियाँ नसीरुद्दीन हमारी ओर कुछ ऐसे देखा किए कि उन्हें हमसे जवाब पाना हो। फिर बड़े ही मँजे अंदाज़ में कहा—‘कहने का मतलब साहिब यह कि तालीम-की-तालीम भी बड़ी चीज़ होती है।’
सिर हिलाया—‘है साहिब, माना!'
मियाँ नसीरुद्दीन जोश में आ गए—‘हमने न लगाया होता खोमचा तो आज क्या यहाँ बैठे होते!’
मियाँ को खोमचेवाले दिनों में भटकते देख हमने बात का रुख़ मोड़ा—‘आपने ख़ानदानी नानबाई होने का ज़िक्र किया, क्या यहाँ और भी नानबाई हैं?’
मियाँ ने घूरा—‘बहुतेरे, पर ख़ानदानी नहीं—सुनिए, दिमाग़ में चक्कर काट गई है एक बात। हमारे बुज़ुर्गों से बादशाह सलामत ने यूँ कहा—मियाँ नानबाई, कोई नई चीज़ खिला सकते हो?’
‘हुक्म कीजिए, जहाँपनाह!’
बादशाह सलामत ने फ़रमाया—‘कोई ऐसी चीज़ बनाओ जो न आग से पके, न पानी से बने।’
‘क्या उनसे बनी ऐसी चीज़!’
‘क्यों न बनती साहिब! बनी और बादशाह सलामत ने ख़ूब खाई और ख़ूब सराही।’
लगा, हमारा आना कुछ रंग लाया चाहता है। बेसब्री से पूछा—‘वह पकवान क्या था—कोई ख़ास ही चीज़ होगी।’
मियाँ कुछ देर सोच में खोए रहे। सोचा पकवान पर रोशनी डालने को है कि नसीरुद्दीन साहिब बड़ी रुखाई से बोले—‘यह हम न बतावेंगे। बस, आप इत्ता समझ लीजिए कि एक कहावत है न कि ख़ानदानी नानबाई कुएँ में भी रोटी पका सकता है। कहावत जब भी गढ़ी गई हो, हमारे बुज़ुर्गों के करतब पर ही पूरी उतरती है।’
मज़ा लेने के लिए टोका—‘कहावत यह सच्ची भी है कि...।’
मियाँ ने तरेरा—‘और क्या झूठी है? आप ही बताइए, रोटी पकाने में झूठ का क्या काम! झूठ से रोटी पकेगी? क्या पकती देखी है कभी! रोटी जनाब पकती है आँच से, समझे।’
सिर हिलाना पड़ा—‘ठीक फ़रमाते हैं।’
इस बीच मियाँ ने किसी और को पुकार लिया—‘मियाँ रहमत, इस वक़्त किधर को! अरे वह लौंडिया न आई रूमाली लेने। शाम को मँगवा लीजो।’
‘मियाँ, एक बात और आपको बताने की ज़हमत उठानी पड़ेगी...।’
मियाँ ने एक और बीड़ी सुलगा ली थी। सो कुछ फ़ुर्ती पा गए थे—‘पूछिए—अरे बात ही तो पूछिएगा—जान तो न ले लेवेंगे। उसमें भी अब क्या देर! सत्तर के हो चुके’ फिर जैसे अपने से ही कहते हों—‘वालिद मरहूम तो कूच किए अस्सी पर क्या मालूम हमें इतनी मोहलत मिले, न मिले।’
इस मज़मून पर हमसे कुछ कहते न बन आया तो कहा—‘अभी यही जानना था कि आपके बुज़ुर्गों ने शाही बावर्चीख़ाने में तो काम किया ही होगा?’
मियाँ ने बेरुख़ी से टोका—‘वह बात तो पहले हो चुकी न!’
‘हो तो चुकी साहिब, पर जानना यह था कि दिल्ली के किस बादशाह के यहाँ आपके बुज़ुर्ग काम किया करते थे?’
‘अजी साहिब, क्यों बाल की खाल निकालने पर तुले हैं! कह दिया न कि बादशाह के यहाँ काम करते थे—सो क्या काफ़ी नहीं?’
हम खिसियानी हँसी हँसे—‘है तो काफ़ी पर ज़रा नाम लेते तो उसे वक़्त से मिला, लेते।’
‘वक़्त से मिला लेते—ख़ूब! पर किसे मिलाते जनाब आप वक़्त से?’ मियाँ हँसे जैसे हमारी खिल्ली उड़ाते हों।
‘वक़्त से वक़्त को किसी ने मिलाया है आज तक! ख़ैर—पूछिए—किसका नाम जानना चाहते हैं? दिल्ली के बादशाह का ही ना! उनका नाम कौन नहीं जानता—जहाँपनाह बादशाह सलामत ही न!’
‘कौन-से, बहादुरशाह ज़फ़र कि...!’
मियाँ ने खीजकर कहा—‘फिर अलट-पलट के वही बात। लिख लीजिए बस यही नाम—आपको कौन बादशाह के नाम चिट्ठी-रुक़्क़ा भेजना है कि डाकख़ानेवालों के लिए सही नाम-पता ही ज़रूरी है।’
हमें बिटर-बिटर अपनी तरफ़ देखते पाया तो सिर हिला अपने कारीगर से बोले—‘अरे ओ बब्बन मियाँ, भट्टी सुलगा दो तो काम से निबटें।’
‘यह बब्बन मियाँ कौन हैं, साहिब?’
मियाँ ने रुखाई से जैसे फाँक ही काट दी हो—‘अपने कारीगर, और कौन होंगे!’
मन में आया पूछ लें आपके बेटे-बेटियाँ हैं, पर मियाँ नसीरुद्दीन के चेहरे पर किसी दबे हुए अंधड़ के आसार देख यह मज़मून न छेड़ने का फ़ैसला किया। इतना ही कहा—‘ये कारीगर लोग आपकी शागिर्दी करते हैं?’
‘ख़ाली शागिर्दी ही नहीं साहिब, गिन के मजूरी देता हूँ। दो रुपए मन आटे की मजूरी। चार रुपए मन मैदे की मजूरी! हाँ!
‘ज़्यादातर भट्टी पर कौन-सी रोटियाँ पका करती हैं?’
मियाँ को अब तक इस मज़मून में कोई दिलचस्पी बाक़ी न रही थी, फिर भी हमसे छुटकारा पाने को बोले—
‘बाक़रख़ानी-शीरमाल ताफ़तान-बेसनी-ख़मीरी-रुमाली-गाव-दीदा-गाज़ेबान-तुनकी—’
फिर तेवर चढ़ा हमें घूरकर कहा—‘तुनकी पापड़ से ज़्यादा महीन होती है, महीन। हाँ। किसी दिन खिलाएँगे, आपको।’
एकाएक मियाँ की आँखों के आगे कुछ कौंध गया। एक लंबी साँस भरी और किसी गुमशुदा याद को ताज़ा करने को कहा—‘उतर गए वे ज़माने। और गए वे क़द्रदान जो पकाने-खाने की क़द्र करना जानते थे! मियाँ अब क्या रखा है...निकाली तंदूर से—निगली और हज़म!’निगली और हज़म!'
- पुस्तक : आरोह (भाग-1) (पृष्ठ 23)
- रचनाकार : कृष्णा सोबती
- प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
- संस्करण : 2022
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