यतीश कुमार के बेला
विभाजन-विस्थापन-पुनर्वासन की एक विस्मृत कथा
पहले पन्ने पर लेखक ने इस उपन्यास (‘मरिचझाँपि को छूकर बहती है जो नदी’) का मर्म लिख दिया है—“विभाजन, विस्थापन एवं पुनर्वासन की एक विस्मृत कथा”। यह पंक्ति पढ़ते ही आप सहज से थोड़े सजग पाठक में बदल जाते
बहुत कुछ खोने के अँधेरे में किसी को बचाने की कहानियाँ
इस किताब को पढ़ते हुए यह महसूस होता है कि कवि-कथाकार-फ़िल्मकार देवी प्रसाद मिश्र की कहानियों के साथ चलना ख़ुद को विशद करना और उदात्त करना ही तो है। ‘कोई है जो’ खिड़की से भीतर गया, दरवाज़े से भीतर जात
सौंदर्य की नदी नर्मदा : नर्मदा के वनवास से अज्ञातवास की पूरी कहानी
“सौंदर्य उसका, भूल-चूक मेरी!” शुरुआती पन्नों में ही यह पंक्ति लिखकर लेखक अपनी मंशा बिल्कुल साफ़ कर देते हैं। सारे ग्रह से लेकर परमाणु तक सब अपनी-अपनी कक्षा में परिक्रमा कर रहे हैं और इसी तरह प्रत्येक
भूलना दुनिया का सबसे बुरा मर्ज़ है
“नदी इतनी पतली थी कि उसमें अब बस धूप से सनी थोड़ी नींद बहती थी।” पहली कहानी के पहले पन्ने पर ऐसी काव्यात्मक भाषा मिल जाए तो पठनीयता की भी ट्यूनिंग हो जाती है। नदी का पेट के मुहाने में बदल जाने की