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बैरीसाल

1719 | असनी, उत्तर प्रदेश

अलंकार ग्रंथ 'भाषाभरण' के रचयिता। सरस दोहों और सटीक उदाहरणों के लिए प्रसिद्ध।

अलंकार ग्रंथ 'भाषाभरण' के रचयिता। सरस दोहों और सटीक उदाहरणों के लिए प्रसिद्ध।

बैरीसाल के दोहे

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लई सुधा सब छीनि विधि, तुव मुख रचिवे काज।

सो अब याही सोच सखि, छीन होत दुजराज॥

लसति रोमावलि कुचन बिच, नीले पट की छाँह।

जनु सरिता जुग चंद्र बिच, निश अंधियारी माँह॥

विधु सम तुव मुख लखि भई, पहिचानन की संग।

विधि याही ते जनु कियो, सखि मयंक में पंग॥

यह सोभा त्रबलीन की, ऐसी परत निहारि।

कटि नापत विधि की मनौ, गड़ी आँगुरी चारि॥

निरमल कीबे को मनहिं, करत स्याम रंग ज़ोर।

अंजन आँजत दृगन ज्यौं, निरमल ताको कोर॥

अलि अब हम कीजै कहा, कासों कहैं हवाल।

उत धनु करषत मदन इत, करषत मनहिं गोपाल॥

निज नेवास को छोड़ि के, लागी पलकन लीक।

वाही अकस लगी लला, अधरा अंजन लीक॥

सुनि तुव मुख निकसे बचन, मधुर सुधा को सोत।

जर्यो समर हर कोप झर, फेरि डहडहो होत॥

करत कोकनद महि रद, तुव पद हद सुकुमार।

भये अरुन अति दबि मनो, पायजेब के भार॥

चलि देखौ ब्रजनाथ जू, झूठी भाखत मैं न।

कढ़त सलोने बदन ते, मधुर सुधा से बैन॥

ऐसे ही इन कमल कुल, जीति लियो निज रंग।

कहा करन चाहत चरन, लहि अब जावक संग॥

कमल चढ़ावत काम है, हर ऊपर यहि चोप।

है प्रसन्न देहैं सुवरु, रति संजोग तजि कोप॥

दाहत आगि वियोग की, वाहि आठहू जाम।

तुम्हैं अछत अदभुत सु यह, सुनौ सरस घनश्याम॥

जैसी कछु विधि नै दई, बड़ी विरह की झार।

तैसे असुवाँ दये, तासु बुझावनहार॥

तुम ताके मन तासु मन, बसत विरह की ज्वाल।

तुम्हें बाधत नेक हू, बड़े सयाने लाल॥

कर छुटाइ भजि दुरि गई, कनक पूतरिन माहिं।

खरे लाल बिलखत खरे, नेकु पिछानत नाहिं॥

जो नहिं हाँ ते विकल है, भगि जातो अलिजाल।

तौ तुव हिय में जानियत, क्यौं चंपा की माल॥

उयो विषद राका शशी, छायो भुवन प्रकास।

तऊँ कुहू रजनी कियो, वाके नैननि वास॥

नहिं कुरंग नहिं ससक यह, नहिं कलंक नहिं पंक।

बीस बिसे बिरहा दही, गड़ी दीठि ससि अंक॥

सखि केतो तुव रूप को, पारावार अपार।

जाहि चपल अति ललन मन, पैरि पावत पार॥

सेत कमल कर लेत ही, अरुन कमल छवि देत।

नील कमल निरखत भयो, हँसत सेत को सेत॥

विरह तई लखि निरदई, मारत नहीं सकात।

मार नाम विधि ने कियो, यहै जानि जिय बात॥

लसत लाल डोरे रु सित, चखन पूतरी स्याम।

प्यारी तेरे दृगन में, कियो तिहूँ गुण धाम॥

अलि ये उड़गन अगिनि कन,अंक धूम अवधारि।

मानहु आवत दहन ससि, लै निज संग दवारि॥

करत नेह हरि सों भटू, क्यों नहिं कियो बिचार।

चहत बचायो बसन अब, बौरी बाँधि अंगार॥

तोष लहत नहिं एक सों, जात और के धाम।

कियो विधातै रावरे, याते नायक नाम॥

निज प्रतिबिंबन में दुरी, मुकुर धाम सुखदानि।

लई तुरत ही भावते, तन सुवास पहिचान॥

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