वेषधारी हरि के उर सालै

weshadhari hari ke ur salai

भगवत रसिक

भगवत रसिक

वेषधारी हरि के उर सालै

भगवत रसिक

वेषधारी हरि के उर सालै।

परमारथ स्वपनै नहिं जाने, पै सन ही कों लालै॥

कबहुँक बकता ह्वै बनि बैठे, कथा भागवत गावै।

अर्थ-अनर्थ कछु नहिं भासैं, पैसन ही को धावै॥

कबहुँक हरि मंदिर को सेवैं, करै निरंतर बासा।

भाव-भगति को लेस जानैं पैसन ही की आसा॥

नाचैं-गावैं, चित्र बनावैं, करै काव्य चटकीली।

साँच बिना हरि हाथ आवै, सब रहनी है ढीली॥

बिन विवेक, वैराग भगति बिनु, सत्य एकौ मानौ।

‘भगवत' बिमुख कपट चतुराई, सो पाखंडै जानौ॥

स्रोत :
  • पुस्तक : ब्रजमाधुरी सार (पृष्ठ 231)
  • रचनाकार : भगवतरसिक
  • प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
  • संस्करण : 2002

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