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पिता के पत्र पुत्री के नाम (शुरू का रहन-सहन)

pita ke patr putri ke naam (shuru ka rahan sahn)

जवाहरलाल नेहरू

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पिता के पत्र पुत्री के नाम (शुरू का रहन-सहन)

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    सरग़नों और राजों की चर्चा हम काफ़ी कर चुके। अब हम उस ज़माने के रहन-सहन और आदमियों का कुछ हाल लिखेंगे।

    हमें उस पुराने ज़माने के आद‌मियों का बहुत ज़्यादा हाल तो मालूम नहीं, फिर भी पुराने पत्थर के युग और नए पत्थर के युग के आदमियों से कुछ ज़्यादा ही मालूम है। आज भी बड़ी-बड़ी इमारतों के खंडहर मौजूद हैं जिन्हें बने हज़ारों साल हो गए। उन पुरानी इमारतों, मंदिरों और महलों को देख कर हम कुछ अंदाज़ा कर सकते हैं कि वे पुराने आदमी कैसे थे और उन्होंने क्या-क्या काम किए। उन पुरानी इमारतों की संगतराशी और नक़्क़ाशी से ख़ासकर बड़ी मदद मिलती है। इन पत्थर के कामों से हमें कभी-कभी इसका पता चल जाता है कि वे लोग कैसे कपड़े पहनते थे। और भी बहुत सी बातें मालूम हो जाती है।

    हम यह तो ठीक-ठीक नहीं कह सकते कि पहले-पहल आदमी कहाँ आबाद हुए और रहने-सहने के तरीक़ा निकाले। बाज़ आद‌मियों का ख़याल है कि जहाँ एटलांटिक सागर है वहाँ एटलांटिक नाम का एक बड़ा मुल्क था। कहते हैं कि इस मुल्क में रहने वालों का रहन-सहन बहुत ऊँचे दर्जे का था, लेकिन किसी वजह से सारा मुल्क एटलांटिक सागर में समा गया और अब उसका कोई हिस्सा बाक़ी नहीं हैं। लेकिन क़िस्से कहानियों को छोड़ कर हमारे पास इसका कोई सबूत नहीं है, इसलिए उसका ज़िक्र करने की ज़रूरत नहीं।

    कुछ लोग यह भी कहते हैं कि पुराने ज़माने में अमरीका में. ऊँचे दर्जे की सभ्यता फैली हुई थी। तुम्हें मालूम है कि कोलंबस को अमरीका का पता लगाने वाला कहा जाता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कोलंबस के जाने के पहले अमरीका था ही नहीं। इसका ख़ाली इतना मतलब है कि योरप वालों को कोलंबस के पहले उसका पता था। कोलंबस के जाने के बहुत पहले से वह मुल्क आबाद और सभ्य था। युकेटन में, जो उत्तरी अमरीका के मेक्सिको राज्य में है, और दक्खिनी अमरीका के पीरू राज्य में, पुरानी इमारतों के खंडहर हमें मिलते हैं। इससे इसका यक़ीन हो जाता है कि बहुत पुराने ज़माने में भी पीरू और युकेटन के लोगों में सभ्यता फैली हुई थी। लेकिन उनका और ज़्यादा हाल हमें अब तक नहीं मालूम हो सका। शायद कुछ दिनों के बाद हमें उनके बारे में कुछ और बातें मालूम हों।

    यूरोप और एशिया को मिलाकर युरेशिया कहते हैं। युरेशिया में सब से पहले मेसोपोटैमिया, मिस्र, क्रीट, हिंदुस्तान और चीन में सभ्यता फैली। मिस्र अब अफ़्रीका में है लेकिन हम इसे युरेशिया में रख सकते हैं क्योंकि वह इससे बहुत नज़दीक है।

    पुरानी जातियाँ जो इधर-उधर घूमती फिरती थीं, जब कहीं आबाद होना चाहती होंगी तो वे कैसी जगह पसंद करती होंगी? वह ऐसी जगह होती होगी जहाँ वे आसानी से खाना पा सकें।

    उनका कुछ खाना खेती से ज़मीन में पैदा होता था। और खेती के लिए पानी का होना ज़रूरी है। पानी मिले तो खेत सूख जाते हैं और उनमें कुछ नहीं पैदा होता। तुम्हें मालूम है कि जब चौमासे में हिंदुस्तान में काफ़ी बारिश नहीं होती तो अनाज बहुत कम होता है और अकाल पड़ जाता है। ग़रीब आदमी भूखों मरने लगते हैं। पानी के बग़ैर काम ही नहीं चल सकता। पुराने ज़माने के आदमियों को ऐसी ही ज़मीन चुननी पड़ी होगी जहाँ पानी की कसरत हो। यही हुआ भी।

    मेसोपोटैमिया में वे दजला और फेरात इन दो बड़ी नदियों के बीच में आबाद हुए। मिस्र में नील नदी के किनारे। हिंदुस्तान में उनके क़रीब-क़रीब सभी शहर सिंध, गंगा, जमुना इत्यादि बड़ी-बड़ी नदियों के किनारे आबाद हुए। पानी उनके लिए इतना ज़रूरी था कि वे इन नदियों को देवता समझने लगे जो उन्हें खाना और आराम की दूसरी चीज़ें देता था। मिस्र में वे नील को पिता नील कहते थे और उसकी पूजा करते थे। हिंदुस्तान में गंगा की पूजा होने लगी और अब तक उसे पवित्र समझा जाता है। लोग उसे गंगा माई कहते हैं और तुमने यात्रियों को गंगा माई की जय का शोर मचाते सुना होगा। यह समझना मुश्किल नहीं है कि क्यों वे नदियों की पूजा करते थे, क्योंकि नदियों से उनके सभी काम निकलते थे। उनसे सिर्फ़ पानी ही मिलता था, अच्छी मिट्टी और बालू भी मिलती थी जिससे उनके खेत उपजाऊ हो जाते थे। नदी ही के पानी और मिट्टी से तो अनाज के ढेर लग जाते थे, फिर वे नदियों को क्यों 'माता' और 'पिता' कहते। लेकिन आद‌मियों की आदत है कि वे कामों के असली सबब को भूल जाते हैं। वे बिना सोचे समझे लकीर पीटते चले जाते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि नील और गंगा की चढ़ाई सिर्फ़ इसलिए है कि उनसे आदमियों को अनाज और पानी मिलता है।

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