Font by Mehr Nastaliq Web

पिता के पत्र पुत्री के नाम (सरग़ना का इख़्तियार कैसे बढ़ा)

pita ke patr putri ke naam (saraghna ka ikhtiyar kaise baDha)

जवाहरलाल नेहरू

अन्य

अन्य

जवाहरलाल नेहरू

पिता के पत्र पुत्री के नाम (सरग़ना का इख़्तियार कैसे बढ़ा)

जवाहरलाल नेहरू

और अधिकजवाहरलाल नेहरू

    मुझे उम्मीद है कि पुरानी जातियों और उनके बुज़ुर्गों का हाल तुम्हें रूखा मालूम होता होगा।

    मैंने अपने पिछले ख़त में तुम्हें बतलाया था कि उस ज़माने में हर-एक चीज़ सारी जाति की होती थी। किसी की अलग नहीं। सरग़ना के पास भी अपनी कोई ख़ास चीज़ होती थी। जाति के और आदमियों की तरह उसका भी एक ही हिस्सा होता था। लेकिन वह इंतज़ाम करने वाला था और उसका यह काम समझा जाता था कि वह जाति के माल और जायदाद की देख-रेख करता रहे। जब उसका इख़्तियार बढ़ा तो उसे यह सूझी कि यह माल और असबाब जाति का नहीं, मेरा है। या शायद उसने समझा हो कि वह जाति का सरग़ना है इसलिए उस जाति का मुख़्तार भी है। इस तरह किसी चीज़ को अपना समझने का ख़याल पैदा हुआ। आज हर-एक चीज़ को मेरा-तेरा कहना और समझना मामूली बात है। लेकिन जैसा मैं पहले तुमसे कह चुका हूँ उस पुरानी जातियों के मर्द और औरत इस तरह ख़याल करते थे। तब हर-एक चीज़ सारी जाति की होती थी। आख़िर यह हुआ कि सरग़ना अपने ही को जाति का मुख़्तार समझने लगा। इसलिए जाति का माल असबाब उसी का हो गया।

    जब सरग़ना मर जाता था तो जाति के सब आदमी जमा होकर कोई दूसरा सरग़ना चुनते थे। लेकिन आमतौर पर सरग़ना के ख़ानदान के लोग इंतज़ाम के काम को दूसरों से ज़्यादा समझते थे। सरग़ना के साथ हमेशा रहने और उसके काम में मदद देने की वजह से वे इन कामों को ख़ूब समझ जाते थे। इसलिए जब कोई बूढ़ा सरग़ना मर जाता, तो जाति के लोग उसी ख़ानदान के किसी आदमी को सरग़ना चुनने लगे। यह तो ज़ाहिर है कि सरग़ना को बड़े इख़्तियार होते थे, और वह चाहता था कि उसका बेटा या भाई उसकी जगह सरग़ना बने। और भरसक इसकी कोशिश करता था। इसलिए वह अपने भाई या बेटे या किसी सगे रिश्तेदार को काम सिखाया करता था जिससे वह उसकी गद्दी पर बैठे। वह जाति के लोगों से कभी-कभी कह भी दिया करता था कि फलाँ आदमी जिसे मैंने काम सिखा दिया है मेरे बाद सरग़ना चुना जावे। शुरू में शायद जाति के आदमियों को यह ताकीद अच्छी लगी हो लेकिन थोड़े ही दिनों में उन्हें इसकी आदत पड़ गई और वे उसका हुक्म मानने लगे। नए सरग़ना का चुनाव बंद हो गया। बूढ़ा सरग़ना तय कर देता था कि कौन उसके बाद सरग़ना होगा और वही होता था।

    इससे हमें मालूम हुआ कि सरग़ना की जगह मौरूसी हो गई यानी ख़ानदान में बाप के बाद बेटा या कोई और रिश्तेदार, सरग़ना होने लगा। सरग़ना को अब पूरा भरोसा हो गया कि जाति का माल असबाब दरअसल मेरा ही है यहाँ तक कि उसके मर जाने के बाद भी वह उसके ख़ानदान में ही रहता था। अब हमें मालूम हुआ कि मेरा-तेरा का ख़याल कैसे पैदा हुआ। शुरू में किसी के दिल में यह बात थी। सब लोग मिलकर जाति के लिए काम करते थे, तो जाति के हर-एक आदमी को उसका हिस्सा मिल जाता था। जाति में अमीर-ग़रीब का फ़र्क़ था। सभी लोग जाति की जायदाद में बराबर के हिस्सेदार थे।

    लेकिन ज्योंही सरग़ना ने जाति की चीज़ों को हड़प करना शुरू किया और उन्हें अपनी कहने लगा अमीर और ग़रीब होने लगे। अगले ख़त में इसके बारे में मैं कुछ और लिखूँगा।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए