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पिता के पत्र पुत्री के नाम (राजा, मंदिर और पुजारी)

pita ke patr putri ke naam (raja, mandir aur pujari)

जवाहरलाल नेहरू

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जवाहरलाल नेहरू

पिता के पत्र पुत्री के नाम (राजा, मंदिर और पुजारी)

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    हमने पिछले ख़त में लिखा था कि आदमियों के पाँच दर्जे बन गए। सबसे बड़ी जमाअत मज़दूर और किसानों की थी। किसान ज़मीन जोतते थे और खाने की चीज़ें पैदा करते थे। अगर किसान या और लोग ज़मीन जोतते और खेती होती तो या तो अनाज पैदा ही होता, या होता तो बहुत कम। इसलिए किसानों का दर्जा बहुत ज़रूरी था। वे होते तो सब लोग भूखों मर जाते। मज़दूर भी खेतों या शहरों में बहुत फ़ायदे के काम करते थे। लेकिन इन अभागों को इतना ज़रूरी काम करने और हर-एक आदमी के काम आने पर भी मुश्किल से गुजारे भर को मिलता था। उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा दूसरों के हाथ पड़ जाता था ख़ासकर राजा और उसके दर्जे के दूसरे आदमियों और अमीरों के हाथ। उसकी टोली के दूसरे लोग जिन में दरबारी भी शामिल थे उन्हें बिल्कुल चूस लेते थे।

    हम पहले लिख चुके हैं कि राजा और उसके दरबारियों का बहुत दबाव था। शुरू में जब जातियाँ बनीं, तो ज़मीन किसी एक आदमी की होती थी, जाति भर की होती थी। लेकिन जब राजा और उसकी टोली के आद‌मियों की ताक़त बढ़ गई तो वे कहने लगे कि ज़मीन हमारी है। वे ज़मींदार हो गए, और बेचारे किसान जो छाती फाड़ कर खेती-चारी करते थे, एक तरह से महज़ उनके नौकर हो गए। फल यह हुआ कि किसान खेती करके जो कुछ पैदा करते थे वह बँट जाता था और वड़ा हिस्सा ज़मींदार के हाथ लगता था।

    बाज़ मंदिरों के क़ब्ज़े में भी ज़मीन थी, इसलिए पुजारी भी ज़मींदार हो गए। मगर ये मंदिर और उनके पुजारी थे कौन? मैं एक ख़त में लिख चुका हूँ कि शुरू में जंगली आदमियों को ईश्वर और मज़हब का ख़याल इस वजह से पैदा हुआ कि दुनिया की बहुत सी बातें उनकी समझ में आती थीं और जिस बात को वे समझ सकते थे, उससे डरते थे। उन्होंने हर-एक चीज़ को देवता या देवी बना लिया, जैसे नदी, पहाड़, सूरज, पेड़, जानवर और बाज़ ऐसी चीज़ें जिन्हें वे देख तो सकते थे पर कयास करते थे, जैसे भूत-प्रेत। वे इन देवताओं से डरते थे, इसलिए उन्हें हमेशा यह ख़याल होता था कि वे उन्हें सज़ा देना चाहते हैं। वे अपने देवताओं को भी अपनी ही तरह क्रोधी और निर्दयी समझते थे और उनका ग़ुस्सा ठंडा करने या उन्हें खुश करने के लिए क़ुर्बानियाँ किया करते थे।

    इन्हीं देवताओं के लिए मंदिर बनने लगे। मंदिर के भीतर एक मंडप होता था जिसमें देवता की मूर्ति होती थी। वे किसी ऐसी चीज़ की पूजा कैसे करते जिसे वे देख ही सकें। यह ज़रा मुश्किल है। तुम्हें मालूम है कि छोटा बच्चा उन्हीं चीज़ों का ख़याल कर सकता है जिन्हें वह देखता है। शुरू ज़माने के लोगों की हालत कुछ बच्चों की सी थी। चूँकि वे मूर्ति के बिना पूजा ही कर सकते थे, वे अपने मंदिरों में मूर्तियाँ रखते थे। यह कुछ अजीब बात है कि ये मूर्तियाँ बराबर डरावने, कुरूप जानवरों की होती थीं, या कभी-कभी आदमी और जानवर की मिली हुई। मिस्र में एक ज़माने में बिल्ली की पूजा होती थी, और मुझे याद आता है कि एक दूसरे ज़माने में बंदर की। समझ में नहीं आता कि लोग ऐसी भयानक मूर्तियों की पूजा क्यों करते थे। अगर मूर्ति ही पूजना चाहते थे तो उसे ख़ूबसूरत क्यों बनाते थे? लेकिन शायद उनका ख़याल था कि देवता डरावने होते हैं, इसीलिए वे उनकी ऐसी भयानक मूर्तियाँ बनाते थे।

    उस ज़माने में शायद लोगों का यह ख़याल था कि ईश्वर एक है, या वह कोई बड़ी ताक़त है, जैसा लोग आज समझते हैं। वे सोचते होंगे कि बहुत से देवता और देवियाँ हैं, जिनमें शायद कभी-कभी लड़ाइयाँ भी होती हों। अलग-अलग शहरों और मुल्कों के देवता भी अलग-अलग होते थे।

    मंदिरों में बहुत से पुजारी और पुजारिनें होती थीं। पुजारी लोग आमतौर पर लिखना पढ़ना जानते थे और दूसरे आदमियों से ज़्यादा पढ़े लिखे होते थे। इसलिए राजा लोग उनसे सलाह लिया करते थे। उस ज़माने में किताबों को लिखना या नक़ल करना पुजारियों ही का काम था। उन्हें कुछ विद्याएँ आती थीं, इसलिए वे पुराने ज़माने के ऋषि समझे जाते थे। वे हकीम भी होते थे और अक्सर, महज़ यह दिखाने के लिए कि वे लोग कितने पहुँचे हुए हैं, वे लोगों के सामने जादू के करतब किया करते थे। लोग सीधे और मूर्ख तो थे ही; वे पुजारियों को जादूगर समझते थे और उनसे थर-थर काँपते थे।

    पुजारी लोग हर तरह से आदमियों की ज़िंदगी के कामों में मिले-जुले रहते थे। वही उस ज़माने के अक़्लमंद आदमियों में थे और हरेक आदमी मुसीबत या बीमारी में उनके पास जाता था। वे आदमियों के लिए बड़े-बड़े त्योहारों का इंतज़ाम करते थे। उस ज़माने में पत्रे थे, ख़ासकर ग़रीब आदमियों के लिए। वे त्योहारों ही से दिनों का हिसाब लगाते थे।

    पुजारी लोग प्रजा को ठगते और धोखा देते थे। लेकिन इसके साथ कई बातों में उनकी मदद भी करते और उन्हें आगे भी बढ़ाते थे।

    मुमकिन है कि जब लोग पहले-पहल शहरों में बसने लगे हों तो उन पर राज करने वाले राजा रहे हों, पुजारी ही रहे हों। बाद को राजा आए होंगे और चूँकि ये लोग लड़ने में ज़्यादा होशियार थे, उन्होंने पुजारियों को निकाल दिया होगा। बाज़ जगहों में एक ही आदमी राजा और पुजारी दोनों ही होता था, जैसे मिस्र के फिरऊन। फिरऊन लोग अपनी ज़िंदगी ही में आधे देवता समझे जाने लगे थे, और मरने के बाद तो वे पूरे देवताओं की तरह पूजने लगे।

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