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पिता के पत्र पुत्री के नाम (ख़ानदान का सरग़ना कैसे बना)

pita ke patr putri ke naam (khandan ka saraghna kaise bana)

जवाहरलाल नेहरू

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पिता के पत्र पुत्री के नाम (ख़ानदान का सरग़ना कैसे बना)

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    मुझे भय है कि मेरे ख़त कुछ पेचीदा होते जा रहे हैं। लेकिन अब ज़िंदगी भी तो पेचीदा हो गई है। पुराने ज़माने में लोगों की ज़िंदगी बहुत सादी थी और हम सब अब उस ज़माने पर गए हैं जब ज़िंदगी का पेचीदा होना शुरू हुआ। अगर हम पुरानी बातों को ज़रा सावधानी के साथ जाँचें और उन तब्दीलियों को समझने की कोशिश करें जो आदमी की ज़िंदगी और समाज में पैदा होती गई, तो हमारी समझ में बहुत सी बातें जाएँगी। अगर हम ऐसा करेंगे तो हम उन बातों को कभी समझ सकेंगे जो आज दुनिया में हो रही है। हमारी हालत उन बच्चों की सी होगी जो किसी जंगल के किनारे पर लिए चलता हूँ ताकि हम इसमें से अपना रास्ता ढूँढ़ निकालें।

    तुम्हें याद होगा कि तुमने मुझसे मसूरी में पूछा था कि बादशाह क्या हैं और वह कैसे बादशाह हो गए। इसलिए हम उस पुराने ज़माने पर एक नज़र डालेंगे जब राजा बनने शुरू हुए। पहले-पहल वह राजा कहलाते थे। अगर उनके बारे में कुछ मालूम करना है तो हमें यह देखना होगा कि वे शुरू कैसे हुए।

    मैं जातियों के बनने का हाल तुम्हें बतला चुका हूँ। जब खेती-बारी शुरू हुई और लोगों के काम अलग-अलग हो गए तो या ज़रूरी हो गया कि जाति का कोई बड़ा-बूढ़ा काम को आपस में बाँट दे। इसके पहिले भी जातियों में ऐसे आदमी की ज़रूरत होती थी जो उन्हें दूसरी जातियों से लड़ने के लिए तैयार करे। अक्सर जाति का सबसे बूढ़ा आदमी सरग़ना होता था। नह जाति का बुज़ुर्ग कहलाता था। सबसे बूढ़ा होने की वजह से वह समझा जाता था कि वह सब से ज़्यादा तजुर्बेकार और होशियार है। यह बुज़ुर्ग जाति के और आदमियों की ही तरह होता था। वह दूसरों के साथ काम करता था और जितनी खाने की चाज़ें पैदा होती थीं वे जाति के सब आदमियों में बाँट दी जाती थीं। हर-एक चीज़ जाति की होती थी। आजकल की तरह ऐसा होता था कि हर-एक आदमी का अपना मकान और दूसरी चीज़ें हों। और आदमी जो कुछ कमाता था वह आपस में बाँट लिया जाता था क्योंकि वह सब जाति का समझा जाता था। जाति का बुज़ुर्ग या सरग़ना इस बाँट-बखरे का इंतज़ाम करता था।

    लेकिन तब्दीलियाँ बहुत आहिस्ता-आहिस्ता होने लगीं। खेती के जाने से नए-नए काम निकल आए और सरग़ना को अपना बहुत सा वक़्त इंतज़ाम करने में और यह देखने में कि सब लोग अपना-अपना काम ठीक तौर पर करते हैं या नहीं, ख़र्च करना पड़ता था। धीरे-धीरे सरग़ना ने जाति के मामूली आदमियों की तरह काम करना छोड़ दिया। वह जाति के और आदमियों से बिल्कुल अलग हो गया। अब काम की बटाई बिल्कुल दूसरे ढंग की हो गई। सरग़ना तो इंतज़ाम करता था और आदमियों को काम करने का हुक्म देता था और दूसरे लोग खेतों में काम करते थे, शिकार करते थे या लड़ाईयों में जाते थे और अपने सरग़ना के हुक्मों को मानते थे। अगर दो जातियों में लड़ाई ठन जाती तो सरग़ना और ताक़तवर हो जाता क्योंकि लड़ाई के ज़माने में बग़ैर किसी अगुआ के अच्छी तरह लड़ना मुमकिन था। इस तरह सरग़ना की ताक़त बढ़ती गई।

    जब इंतज़ाम करने का काम बहुत बढ़ गया तो सरग़ना के लिए अकेले सब काम मुश्किल हो गया। उसने अपनी मदद के लिए दूसरे आदमियों को लिया। इंतज़ाम करने वाले बहुत से हो गए। हाँ, उनका अगुआ सरग़ना ही था। इस तरह जाति दो हिस्सों में बँट गई, इंतज़ाम करने वाले ऐर मामूली काम वाले। अब सब लोग बराबर रहे। जो लोग इंतज़ाम करते थे उनका मामूली मज़दूरों पर दबाव होता था।

    अगले ख़त में मैं दिखाऊँगा कि सरग़ना का इख़्तियार क्योंकर बढ़ा।

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