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पिता के पत्र पुत्री के नाम (मज़हब की शुरुआत और काम का बँटवारा)

pita ke patr putri ke naam (mazhab ki shuruat aur kaam ka bantvara)

जवाहरलाल नेहरू

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जवाहरलाल नेहरू

पिता के पत्र पुत्री के नाम (मज़हब की शुरुआत और काम का बँटवारा)

जवाहरलाल नेहरू

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    पिछले ख़त में मैंने तुम्हें बतलाया था कि पुराने ज़माने में आदमी हर-एक चीज़ से डरता था और ख़याल करता था कि उसपर मुसीबतें लाने वाले देवता हैं जो क्रोधी हैं और हसद करते हैं। उसे ये फ़र्ज़ी देवता—जंगल, पहाड़, नदी, बादल—सभी जगह नज़र आते थे। देवता को वह दयालु और नेक नहीं समझता था, उसके ख़याल में वह बहुत ही क्रोधी था और बात-बात पर झल्ला उठता था। और चूँकि वे उसके ग़ुस्से से डरते थे इसलिए वे उसे भेंट देकर, ख़ासकर खाना पहुँचाकर, हर तरह की रिश्वत देने की कोशिश करते रहते थे। जब कोई बड़ी आफ़त जाती थी, जैसे भूचाल, या बाढ़ या महामारी जिसमें बहुत से आदमी मर जाते थे, तो वे लोग डर जाते थे और सोचते थे कि देवता नाराज़ हैं। उन्हें ख़ुश करने के लिए वे मर्दों औरतों का बलिदान करते, यहाँ तक कि अपने ही बच्चों को मार कर देवताओं को चढ़ा देते। यह बड़ी भयानक बात मालूम होती है लेकिन डरा हुआ आदमी जो कुछ कर बैठे थोड़ा है।

    इसी तरह मज़हब शुरू हुआ होगा। इसलिए मज़हब पहले डर के रूप में आया और जो बात डर से की जावे बुरी है। तुम्हें मालूम है कि मज़हब हमें बहुत सी अच्छी अच्छी बातें सिखाता है। जब तुम बड़ी हो जाओगी, तो तुम दुनिया के मज़हबों का हाल पढ़ोगी और तुम्हें मालूम होगा कि मज़हब के नाम पर क्या-क्या अच्छी और बुरी बातें की गई हैं। यहाँ हमें सिर्फ़ यह देखना है कि मज़हब का ख़याल कैसे पैदा हुआ, और क्योंकर बढ़ा। लेकिन 'चाहे वह जिस तरह बढ़ा हो, हम आज भी लोगों को मज़हब के नाम पर एक-दूसरे से लड़ते और सिर फोड़ते देखते हैं। बहुत से आदमियों के लिए मज़हब आज भी वैसी ही डरावनी चीज़ है। वह अपना वक़्त फ़र्ज़ी देवताओं को ख़ुश करने के लिए, मंदिरों में पूजा चढ़ाने और जानवरों की क़ुर्बानी करने में ख़र्च करते हैं।

    इससे मालूम होता है कि शुरू में आदमी को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। उसे अपना रोज़ का खाना तलाश करना पड़ता था नहीं तो भूखों मर जाता। उन दिनों कोई आलसी आदमी ज़िंदा रह सकता था। कोई ऐसा भी नहीं कर सकता था कि एक ही दिन बहुत सा खाना जमा करले और बहुत दिनों तक आराम से पड़ा रहे।

    जब जातियाँ (फिरके) बन गईं, तो आदमी को कुछ सुविधा हो गई। एक जाति के सब आदमी मिलकर उससे ज़्यादा खाना जमा कर लेते थे जितना कि वे अलग-अलग कर सकते थे। तुम जानती हो कि मिल कर काम करना या सहयोग हमें ऐसे बहुत से काम करने में मदद देता है जो हम अकेले नहीं कर सकते। एक या दो आदमी कोई भारी बोझ नहीं उठा सकते लेकिन कई आदमी मिल कर आसानी से उठा ले जा सकते हैं। दूसरी बड़ी तरक़्क़ी जो उस ज़माने में हुई वह खेती थी। तुम्हें यह सुन कर ताज्जुब होगा कि खेती का काम पहले कुछ चीटियों ने शुरू किया। मेरा यह मतलब नहीं है कि चीटियाँ बीज बोतीं, हल चलातीं या खेत काटती हैं। मगर वे कुछ इसी तरह की बात करती हैं। अगर उन्हें कोई ऐसी झाड़ी मिलती है, जिसके बीज वे खाती हों, तो वे बड़ी होशियारी से उसके आस-पास की घास निकाल डालती हैं। इससे वह दरख़्त ज़्यादा फलता फूलता और बढ़ता है। शायद किसी ज़माने में आदमियों ने भी यही किया होगा जो चीटियाँ करती हैं। तब उन्हें यह समझ क्या थी कि खेती क्या चीज़ है। इसके जानने में उन्हें एक ज़माना गुज़र गया होगा और तब उन्हें मालूम हुआ होगा कि बीज कैसे बोया जाता है।

    खेती शुरू हो जाने पर खाना मिलना बहुत आसान हो गया। आदमी को खाने के लिए सारे दिन शिकार करना पड़ता था। उनकी ज़िंदगी पहले से ज़्यादा आराम से कटने लगी। इसी ज़माने में एक और बड़ी तब्दीली पैदा हुई। खेती के पहले हर एक आदमी शिकारी था और शिकार ही उसका एक काम था। औरतें शायद बच्चों की देख रेख करती होंगी और फल बटोरती होंगी। लेकिन जब खेती शुरू हो गई तो तरह-तरह के काम निकल आए। खेतों में भी काम करना पड़ता था, शिकार करना, गाय-बैलों की देख-भाल करना भी ज़रूरी था। औरतें शायद गउओं की देख-भाल करती थीं और गायों को दुहती थीं। कुछ आदमी एक तरह का काम करने लगे, कुछ दूसरी तरह का।

    आज तुम्हें दुनिया में हर-एक आदमी एक ख़ास क़िस्म का काम करता हुआ दिखाई देता है। कोई डॉक्टर है, कोई सड़कों और पुलों का बनाने वाला इंजिनियर, कोई बढ़ई, कोई लुहार, कोई घरों का बनाने वाला, कोई मोची या दर्ज़ी वग़ैरा। हरेक आदमी का अपना अलग पेशा है और दूसरे पेशों के बारे में वह कुछ नहीं जानता। इसे काम का बँटना कहते हैं। अगर कोई आदमी एक ही काम करे तो उसे बहुत अच्छी तरह करेगा। बहुत से काम वह इतनी अच्छी तरह पूरा नहीं कर सकता, दुनिया में आजकल इसी तरह काम बँटा हुआ है।

    जब खेती शुरू हुई तो पुरानी जातियों में इसी तरह धीरे-धीरे काम का बँटना शुरू हुआ।

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