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कौवा कहे मराल से

kauwa kahe maral se

गिरिधर कविराय

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गिरिधर कविराय

कौवा कहे मराल से

गिरिधर कविराय

और अधिकगिरिधर कविराय

    कौवा कहे मराल से, कहा जाति कह गोत।

    तुम ऐसे बदरूपिया, कहूँ जग में होत॥

    कहूँ जग में होत, महा मैले, मलखाना।

    बैठि कचहरि जाय, वेद मर्याद जाना।

    कह गिरिधर कविराय, सुनो हो पंछी हौवा।

    धन्य मुल्क यह देश, जहाँ के राजा कौवा॥

    कौआ हंस से कहता है कि अरे हंस! तेरी क्या जाति और क्या गोत्र है। तेरे जैसा कुरूप जीव तो हमने संसार में नहीं देखा। तू बड़ा मैला और मल का भंडार है। तुझे कचहरियों अर्थात राजसभाओं में जाकर बैठने की सभ्यता नहीं आती और तू वेद की मर्यादा को ही जानता है। हे दूसरों को व्यर्थ ही भयभीत करने वाले पक्षियों! सुनो—वह देश धन्य है जहाँ के राजा कौए हैं। भाव यह कि जहाँ विद्वानों का आदर हो, मूर्ख लोग विद्वानों पर शासन करते हों, उस देश का कभी कल्याण नहीं हो सकता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पुष्प-पराग (पृष्ठ 307)
    • संपादक : टेकचंद शास्त्री
    • रचनाकार : गिरिधर कविराय
    • प्रकाशन : भारती सदन, दिल्ली
    • संस्करण : 1955

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