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क्या सोवै तू बावरी

kya sovai tuu baavarii

पलटू

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पलटू

क्या सोवै तू बावरी

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    क्या सोवै तू बावरी चाला जात बसंत॥

    चाला जात बसंत कंत ना घर में आये।

    धृग जीवन है तोर कंत बिन दिवस गँवाये॥

    गर्ब गुमानी नारि फिरै जोवन की माती।

    खसम रहा है रूठि नहीं तू पठवै पाती॥

    लगै तेरो चित्त कंत को नाहिं मनावै।

    का पर करै सिंगार फूल की सेज बिछावै॥

    पलटू ऋतु भरि खेलि ले फिर पछितैहै अंत।

    क्या सोवै तू बावरी चाला जात बसंत॥

    हे पगली! तू असावधानी में पड़ी क्यों सोती है? वसंत ऋतु की बहार बीती जा रही है, किंतु तुम्हारा पति तुम्हारे घर में नहीं सका। तेरे जीवन को धिक्कार है जो तू पति-विहीन होकर दिन खो रही है। नारी तो गर्व में मतवाली है और जवानी की मस्ती में मस्त है। तेरा पति तुमसे अप्रसन्न है। तू उसके पास चिट्ठी-पत्र भी नहीं भेजती है। तेरा मन अपने पति में नहीं लग रहा है। तू अपने प्रियतम को मनाने का प्रयत्न नहीं करती है। तू किसको मन में रखकर शृंगार करती है और फूलों की शय्या बिछाती है? पलटू साहेब कहते हैं कि पूरी वसंत ऋतु फाग खेल लो, अन्यथा अंत में पश्चाताप करना पड़ेगा। हे पगली! तू क्यों गफ़लत में पड़ी है, वसंत ऋतु भागी जा रही है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पलटू साहेब की बानी (पृष्ठ 38)
    • संपादक : अभिलाषा दास
    • रचनाकार : पलटू
    • प्रकाशन : कबीर आश्रम, कबीर नगर, इलाहाबाद
    • संस्करण : 2012

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