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भारत-भारती / वर्तमान खंड / वैश्य

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मैथिलीशरण गुप्त

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मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / वर्तमान खंड / वैश्य

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    जो ईश के ऊरुज अत: जिन पर स्वदेश स्थिति रही,

    व्यापार, कृषि, गो-रूप में, दुहते रहे जो सब मही।

    वे वैश्य भी अब पतित होकर नीच पद पाने लगे,

    बनियें कहा कर वैश्य से 'बक्काल' कहलाने लगे!

    वह लिपि, कि जिसमें 'सेठ' को 'सठ' ही लिखेंगे सब कहीं,

    सीखी उन्होंने और उनकी हो चुकी शिक्षा वही!

    हा! वेद के अधिकारियों में आज ऐसी मूढ़ता,

    है शेष उनके 'गुप्त' पद में किन गुणों की गूढ़ता?

    कौशल्य उनका यहाँ बस तोलने में रह गया,

    उद्यम तथा साहस दिवाला खोलने में रह गया!

    करने लगे हैं होड़ उनके वचन कच्चे सूत से,

    करते दिवाली पर परीक्षा भाग्य की वे घृत से!

    वाणिज्य या व्यवसाय का होता शऊर उन्हें कहीं,

    तो देश का धन यों कभी जाता विदेशों को नहीं।

    है अर्थ सट्टा-फाटका उनके निकट व्यापार का,

    कुछ पार हैं देखो भला उनके महा अविचार का?

    बस हाय पैसा! हाय पैसा!! कर रहे हैं वे सभी,

    पर गुण बिना पैसा भला क्या प्राप्त होता है कभी?

    सबसे गए बीते नहीं क्या आज वे हैं दीखते,

    वे देख सुन कर भी सभी कुछ क्या कभी कुछ सीखते?

    बस अब विदेशों से मँगा कर बेचते हैं माल वे,

    मानों विदेशी वाणिजों के हैं यहाँ दल्लाल वे।

    वेतन सदृश कुछ लाभ पर वे देश का धन खो रहे,

    निद्रव्य कारीगर यहाँ के हैं उन्हीं को रो रहे॥

    उनका द्विजत्व विनष्ट है, है किंतु उनको खेद क्या?

    संस्कार-हीन जघन्यजों में और उनमें भेद क्या?

    उपवीत पहने देख उनको धर्म-भाग्य सराहिए,

    पर तालियों के बाँधने को रज्जु भी तो चाहिए!

    चंदा किसी शुभ कार्य में दो चार सौ जो है दिया,

    तो यज्ञ मानों विश्वजित ही है उन्होंने कर लिया!

    बनवा चुके मंदिर, कुआँ या धर्मशाला जो कहीं,

    हा स्वार्थ, तो उनके सदृश सुर भी सुयश भागी नहीं!!

    औदार्य उनका दीखता है एक मात्र विवाह में,

    वह जाए चाहे वित्त सारा नाच-रंग-प्रवाह में!

    वे वृद्ध होकर भी पता रखते विषय की थाह का,

    मरे भी जी उठें वे नाम सुन कर ब्याह का!

    उद्योग-बल से देश का भांडार जो भरते रहे,

    फिर यज्ञ आदि सुकर्म में जो व्यय उसे करते रहे।

    वे आज अपने आप ही अपघात अपना कर रहे,

    निज द्रव्य खोकर घोर अघ के घट निरंतर भर रहे॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 132)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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