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भारत-भारती / अतीत खंड / हमारी दशा

hamari dasha

मैथिलीशरण गुप्त

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मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / अतीत खंड / हमारी दशा

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    पर हाय! अब भी तो नहीं निद्रा हमारी टूटती,

    कैसी कुटेवें हैं कि जो भी नहीं हैं छूटती।

    बेसुध अभी तक हैं, जाने कौन ऐसा रस पिया?

    देखा बहुत कुछ किंतु हमने सब बिना देखा किया!

    हैं घट गए संप्रति हमारे चरित ऐसे सर्वथा,

    कवि-कल्पना-सी जान पड़ती पूर्वजों की वह कथा!

    आश्चर्य क्या जो फिर हमें वह युक्ति-युक्त जँचे नहीं,

    छोटे दिलों में भी बड़ी बातें समा सकती कहीं?

    गायक मदन शिशु जो कहीं होता पुरातन काल में,

    होते कहीं ये भीमकर्मा राममूर्ति हाल में,

    लेते संप्रति जन्म जो वे आधुनिक अर्जुन कई,

    इनकी कथा भी कल्पना की दौड़ कहलाती नई॥

    सारे जगत में जब परा-विद्या प्रमुखता पाएगी—

    उत्पत्ति भारत में तथा उसकी बताई जाएगी।

    तब भी कदाचित् मुँह बना कर कह उठेंगे हम यही—

    क्यों जी, हमारे पूर्वजों की यह कथा क्या है सही॥

    संसार रूप शरीर में जो प्राण रूप प्रसिद्ध था,

    सब सिद्धियों में जो कभी संपूर्णता से सिद्ध था।

    हा हंत! जोते जो वही अब हो रहा म्रियमाण है,

    अब लोक-रूप-मयंक में भारत कलंक-समान है!

    हा देव! अब वे दिन कहाँ हैं और वे रातें कहाँ?

    हैं काल की घातों कि कल की आज हैं बातें कहाँ?

    क्या थे तथा अब क्या हुआ हम, जानता बस काल है;

    भगवान जाने, काल की कैसी निराली चाल है॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 81)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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