भारत-भारती / अतीत खंड / हमारी विद्या-बुद्धि

hamari widdya buddhi

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / अतीत खंड / हमारी विद्या-बुद्धि

मैथिलीशरण गुप्त

पांडित्य का इस देश में सब ओर पूर्ण विकास था,

बस, दुर्गुणों के ग्रहण में ही अज्ञता का वास था।

सब लोग तत्त्व-ज्ञान में संलग्न रहते थे यहाँ-

हाँ व्याध भी वेदांत के सिद्धांत कहते थे यहाँ!

जिसकी प्रभा के सामने रवि तेज भी फीका पड़ा,

अध्यात्म-विद्या का यहाँ आलोक फैला था बड़ा!

मानस-कमल सबके यहाँ दिन-रात रहते थे खिले,

मानों सभी जन ईश की ज्योति-छटा में थे मिले॥

समझा प्रथम किसने जगत में गूढ़ सृष्टि-महत्त्व को?

जाना कहो किसने प्रथम जीवन-मरण के तत्त्व को?

आभास ईश्वर जीव का कैवल्य तक किसने दिया?

सुनलो, प्रतिध्वनि हो रही, यह कार्य्य आर्यों ने किया॥

हम वेद, वाकोवाक्य-विद्या, ब्रह्मविद्या-विज्ञ थे,

नक्षत्र-विद्या, क्षत्र-विद्या, भूत-विद्याऽभिज्ञ थे।

निधि, नीति-विद्या, राशि-विद्या, पित्र्य-विद्या में बढ़े,

सर्पादि-विद्या, देव-विद्या, दैव-विद्या थे पढ़े॥

आए नहीं थे स्वप्न में भी जो किसी के ध्यान में,

वे प्रश्न पहले हल हुए थे एक हिंदुस्तान में?

सिद्धांत मानव जाति के जो विश्व में वितरित हुए,

बस, भारतीय तपोवनों में थे प्रथम निश्चित हुए॥

थे योग-बल से वश हमारे नित्य पाँचों तत्त्व भी,

मर्त्यत्व में वह शक्ति थी रखता जो अमरत्व भी।

संसार-पथ में वह हमारी गति कहीं रुकती थी,

विस्तृत हमारी आयु वह चिरकाल तक चुकती थी॥

जो श्रम उठा कर यत्न से की जाय खोज जहाँ-तहाँ,

विश्वास है, तो आज भी योगी मिलें ऐसे यहाँ

जो शून्य में संस्थित रहें, भोजन बिना कभी मरे;

अविचल समाधिस्थित रहें, द्रुत देह परिवर्तित करें॥

हाँ, वह मनःसाक्षित्व-विद्या की विलक्षण साधना;

वह मेस्मरेजिमर की महत्ता, प्रेत-चक्राराधना।

कारक और भी वे आधुनिक बहु वृद्धियाँ,

कहना वृथा है, है हमारे योग की लघु सिद्धियाँ॥

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 27)
  • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
  • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
  • संस्करण : 1984

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