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तब तौ छबि पीवत जीवत हे

tab tau chhabi piwat jiwat he

घनानंद

घनानंद

तब तौ छबि पीवत जीवत हे

घनानंद

तब तौ छबि पीवत जीवत हे, अब सोचन लोचन जात जरे।

हित पोष के तोष सु प्रान पले, बिललात महा दु:ख दोष भरे॥

घनआनंद मीत सुजान बिना सब ही सुख-साज-समाज टरे।

तब हार पहार से लागत हे अब आनि कै बीच पहार परे॥

विरही घनानंद संयोग और वियोग का अंतर स्पष्ट कर रहे हैं। वे कहते हैं कि पहले संयोगावस्था मे प्रेयसी की छवि का अमृत पान करके नेत्र जीते थे अब वियोगावस्था में वे ही विष-ज्वाल से जल रहे हैं। प्राण पहले प्रेम के पोषण से पुष्ट हो रहे थे, अब दु:ख में गल रहे हैं। सब प्रकार के सुख वियोग में तिरोहित हो गए हैं। संयोग में नैकट्य इतना था कि आलिंगन में हार पहाड़ की भाँति बाधक होते थे, उनका व्यवधान हटाकर आलिंगन होता था, पर अब हार के व्यवधान की चर्चा ही व्यर्थ है, बल्कि दोनों के बीच पहाड़ों का अंतर है।

स्रोत :
  • पुस्तक : घनानंद कवित्त (प्रथम आनन) (पृष्ठ 90)
  • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र ‘शास्त्री’
  • रचनाकार : घनानंद
  • प्रकाशन : वाणी वितान
  • संस्करण : 1972

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