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लगी है लगनि प्यारे पगी है सुरति तोसों

lagi hai lagani pyare pagi hai surti toson

घनानंद

अन्य

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घनानंद

लगी है लगनि प्यारे पगी है सुरति तोसों

घनानंद

और अधिकघनानंद

    लगी है लगनि प्यारे पगी है सुरति तोसों,

    जगी है बिकलताई ठगी सो सदा रहीं।

    जियरा उड़यौ सो डोलै हियरा धक्यौई करै,

    पियराई छाई तन सियराई दो दहौं।

    ऊनो भयौ जीबो अब सूनो सब जग दीसै,

    दूनो-दूनो दु:ख एक-एक छिन मैं सहौं।

    तेरे तौ लेखो मोहिं मारत परेखो महा,

    जान घनआनंद पै खोइबो लहा लहौं॥

    हे प्रिय, आपसे ही लगन लगी है और स्मृति भी आप ही में लीन है। व्याकुलता बढ़ रही है। मेरी स्थिति ठगे व्यक्ति की सी हो रखी है। जी उड़ा-उड़ा फिरता है और छाती धड़कती रहती है। सारे शरीर में पीलापन छाया है। भीतर ही भीतर धीरे-धीरे सुलगने वाली विरह की इस ठंडी आग से जलती रहती हूँ। मेरे लिए जीना अब व्यर्थ प्रतीत होता है। सारा संसार निस्तत्व-सा लगता है। एक-एक क्षण में दु:ख दूना-दूना हो रहा है। मेरे कष्ट के बढ़ने की स्थिति तो अनगिनत होती जा रही है और आप उसे किसी गिनती में गिनते नहीं। मुझे आपके इस प्रकार परांगमुख होने का सोच ही सबसे अधिक मारे डाल रहा है। कैसी विलक्षण बात है कि जो सुजान है और जो घने आनंद वाला है उससे केवल खोने की प्राप्ति हो रही है। आपके प्रेम में पड़कर केवल खोना ही खोना है, पाना कुछ नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 237)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
    • संस्करण : 1972

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