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काम की कमान तेरी भृकुटि कुटिल आली

kaam ki kaman teri bhrikuti kutil aali

सेनापति

सेनापति

काम की कमान तेरी भृकुटि कुटिल आली

सेनापति

काम की कमान तेरी भृकुटि कुटिल आली,

तातैं अति तीछन तीर से चलत हैं।

घूंघट की ओट कोट, करि कै कसाई काम,

मारे बिन काम, कामी केते ससकत हैं।।

तोरे तैं टूटैं, निकासे हू तैं निकसैं न,

पैने निसि-वासर करेजे कसकत हैं।

सेनापति प्यारी तेरे तमसे तरल तारे,

तिरछे कटाक्ष गड़ि छाती मैं रहत हैं।।

कोई सखी नायिका से कहती है कि हे सखी, तेरी टेढ़ी भौंहें तो कामदेव की कमान यानी धनुष है। उनसे अत्यन्त तीक्ष्ण तीर-से चला करते हैं। तात्पर्य यह है कि नायिका की टेढ़ी भौंहे हैं। नेत्रों से प्रभावपूर्ण कटाक्ष ऐसे चलते हैं कि कामदेव के धनुष से तीर चलते हों। कटाक्ष वासनोत्पादक होते हैं इसीलिए ऐसा कहा गया है। सखी कहती है कि घूँघट की ओट रूपी गढ़ से ही तेरे नेत्र कटाक्ष करने का काम कसाई की-सी निष्ठुरता से करते हैं जिससे कितने ही कामी व्यक्ति बिना अपराध के ही घायल होकर, व्यथित होकर सिसका करते हैं। तेरे कटाक्ष सीधे कलेजे पर असर करते हैं, कलेजे में चुभ जाते हैं जो तो तोड़ने से टूटते हैं और बाहर निकाले जाने पर बाहर पाते हैं। वे तीक्ष्ण हैं इसलिए दिन-रात कलेजे में कसका करते, पीड़ा दिया करते हैं। सेनापति वर्णन करते हैं कि सखी नायिका से कहती है कि हे प्यारी सखी, तेरे नेत्र के तारे यानी पुतलियाँ अंधकार जैसी काली हैं। उनके कटाक्ष तिरछे होते हैं और वे छाती में गड़ जाते हैं। तिरछे होने से उन्हें बाहर निकाल पाना संभव नहीं होता।

स्रोत :
  • पुस्तक : कवित्त रत्नाकर (पृष्ठ 32)
  • रचनाकार : सेनापति
  • प्रकाशन : हिंदी परिषद् प्रकाशक, प्रयाग
  • संस्करण : 1971

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