कर्म को बियापी को है धर्म कै समाधि ध्यावै

karm ko biyaapii ko hai dharm kai samaadhi dhyaavai

आलम

आलम

कर्म को बियापी को है धर्म कै समाधि ध्यावै

आलम

कर्म को बियापी को है धर्म कै समाधि ध्यावै,

श्रमु कै सुनावै सु तो ब्रह्म ही के नाम को।

कैसो जोग जुगति संजोग कैसो कहा जोग,

ज्ञान हू की गाँठि कैसी ध्यानन को धाम को।

‘आलम’ सुकबि इहाँ बृंदावनचंद कान्ह,

चित ये चकोर कहौ आन बिसराम को।

जहाँ रस परस सरस मुरली की घोर,

तहाँ ऊधौ सगुन निगुन कौन काम को॥

ब्रह्म ज्ञान देने हेतु गोकुल में पधारे उद्धव से गोपियाँ प्रश्न करती हुई कहती हैं कि हे उद्धव! धर्म की समाधि लगाने वाला क्या कर्म को प्राप्त कर सकता है! कर्म में निरत रहना ही धर्म है। अतः मनुष्य को निकम्मा रहकर ध्यान, समाधि आदि नहीं लगानी चाहिए। जो व्यक्ति श्रम की महत्ता का वर्णन करता है, वह भी मानो ब्रह्म का ही नाम ले रहा है। योग की साधना कैसी होती है? क्या योग साधना प्रिय मिलन के समान हो सकती है? ज्ञान की ग्रंथि कैसी हुआ करती है तथा ध्यान का धाम, जिसका ध्यान लगाया जाए वह कौन है? कवि कह रहा है कि गोपियों ने कहा—हे उद्धव! इस ब्रज में तो श्रीकृष्ण ही वृंदावन वासियों के लिए आनंदित करने वाले चंद्रमा हैं और हमारे ये चित्त उस चंद्रमा के लिए चकोर हैं। ये चित्त उसे वैसे ही चाहते हैं जैसे चंद्रमा की चकोर चाहना रखता है। तब बतलाओ इन ब्रजवासियों को दूसरे आश्रय-स्वरूप निर्गुण ब्रह्म से क्या लेना-देना है। इस वृंदावन में तो मधुर मुरली की रसभरी तानें आनंदित करती रहती हैं। यहाँ सगुण श्रीकृष्ण की अपेक्षा निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान का कोई महत्व नहीं है।

स्रोत :
  • पुस्तक : आलम ग्रंथावली (पृष्ठ 75)
  • संपादक : विद्यानिवास मिश्र
  • रचनाकार : आलम
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 2015

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