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व्यास-स्तवन

wyas stawan

मैथिलीशरण गुप्त

अन्य

अन्य

मैथिलीशरण गुप्त

व्यास-स्तवन

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    शुभ-सौम्य-मूर्ति तेजोनिधान,

    हो अन्य भानु ज्यों भासमान,

    ध्यानस्थ, स्वस्थ, सद्धर्म-धाम,

    भगवान व्यास! तुमको प्रणाम॥

    तव गुण अनंत भू-कण समान,

    है कौन उन्हें सकता बखान?

    उपकार याद कर तव अपार,

    होते बुध विस्मित बार-बार॥

    कर ज्ञान-भानु तुमने प्रकाश,

    अज्ञान-निशा कर दी विनाश।

    कर तव शिक्षामृत-पान शुद्ध,

    संसार हुआ शिक्षित प्रबुद्ध॥

    क्या राजनीति, सामान्य-नीति,

    क्या धर्म-कर्म, क्या प्रीति-रीति।

    क्या भक्ति-भाव, व्यवहार वेश,

    उपदेश दिए तुमने अशेष॥

    होता है जग में जो सदैव,

    जो हुआ और होगा तथैव,

    कथनानुसार तव सो समग्र,

    होता है, होगा, हुआ अग्र॥

    जो दिखलाया तुमने समक्ष,

    हैं वही देख सकते सुदक्ष।

    तुमने किया हो जिसे व्यक्त,

    सब उसे बताने में अशक्त॥

    है विषय अहो! ऐसा एक,

    जिसका किया तुमने विवेक।

    रचनाएँ कवियों की प्रशस्त,

    उच्छिष्ट तुम्हारी है समस्त॥

    कर वेदों का तुमने विभाग,

    रक्षा की उनकी सानुराग।

    वेदांत-सूत्र रच कर अमोल,

    है दिए हृदय के नेत्र खोल॥

    सुन कर जिनका शुभ सदुपदेश,

    रह जाता कुछ सुनना शेष;

    शुचि-शुद्ध, सनातन-धर्म-प्राण,

    सो रचे तुम्हीं ने हैं पुराण॥

    जिसको सब कवि-कोविद-समाज,

    कहते हैं पंचम वेद आज।

    वह गीत तुम्हारा ही प्रणीत,

    इतिहास महाभारत पुनीत॥

    हो जाता धर्म सहाय-हीन,

    सब पूर्व-कीर्ति होती विलीन।

    स्वच्छंद विचरते पाप-ताप,

    लेते जन्म यदि ईश! आप॥

    करता शुभ कर्म प्रचार कौन?

    सिखलाता वेदाचार कौन?

    हरता तुम बिन त्रयताप कौन?

    दिखलाता पूर्व-प्रताप कौन?

    करने को तब सन्मार्ग लुप्त,

    हैं हुए यत्न बहु प्रकट-गुप्त।

    वे हुए किंतु निष्फल, निषिद्ध,

    हो क्यों कर सत्य असत्य सिद्ध?

    हिंदुत्व हिंदुओं का प्रधान,

    हैं अब तक भी जो विद्यमान।

    हे जगद्वन्द्य, करुणा-निधान!

    हो तुम्हीं एक इसके निदान॥

    जो आर्य-जाति का कीर्ति-गान,

    पाता है जग में मुख्य मान,

    है उसका जो गौरव महान,

    सो किया आप ही ने प्रदान॥

    वर्णन करते भी बार बार,

    रहते हैं तब गुण-गण अपार।

    घन चाहे जितना भरें नीर,

    घटता किंतु सागर गंभीर॥

    है हमें तुम्हारा अमित गर्व,

    है तब कृतज्ञ संसार सर्व,

    हे भारत धन्य अश्वमेव,

    तुम हुए जहाँ अवतीर्ण देव॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 58)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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