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दिन के दुख अलग थे

din ke dukh alag the

गगन गिल

अन्य

अन्य

गगन गिल

दिन के दुख अलग थे

गगन गिल

दिन के दुख अलग थे

रात के अलग

दिन में उन्हें

छिपाना पड़ता था

रात में उनसे छिपना

बाढ़ की तरह

अचानक जाते वे

पूनम हो या अमावस

उसके बाद सिर्फ़

एर ढेर कूड़े का

किनारे पर

अनलिखी मैली पर्ची

देहरी पर

उसी से पता चलता

आज आए थे वे

ख़ुशी होती

बच गए बाल-बाल आज

रातों के दुख मगर

अलग थे

बचना उनसे आसान था

उन्हें सब पता था

भाग कर कहाँ जाएगा

जाएगा भी तो

यहीं मिलेगा

बिस्तर पर

सोया हुआ शिकार

कहीं दलदल

धँसती जाती कोई आवाज़

नींद में

पता भी चलता

किसने खींच लिया पाताल में

सोया पैर

किसने सोख ली

सारी साँस

कौन कुचल गया

सोया हुआ दिल

दुख जो कोंचते थे

दिन में

वे रात में नहीं

जो रात को रुलाते

वे दिन में नहीं

इस तरह लगती थी घात

दिन रात

सीने पर

पिघलती थी शिला एक

ढीला होता था

जबड़ा

पीड़ा में अकड़ा

दिन गया नहीं

कि जाती थी रात

जा जाते थे

शिकारी

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गगन गिल

गगन गिल

स्रोत :
  • पुस्तक : मैं जब तक आई बाहर (पृष्ठ 50)
  • रचनाकार : गगन गिल
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 2018

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