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वह शाम : वह बड़ का पेड़

wo sham ha wo baD ka peD

अनुवाद : खड़कराज गिरी

वीरभद्र कार्कीढोली

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वीरभद्र कार्कीढोली

वह शाम : वह बड़ का पेड़

वीरभद्र कार्कीढोली

और अधिकवीरभद्र कार्कीढोली

    तुम शायद भूल चुकी हो

    उस शाम को, तुम

    लोगों की भीड़ में

    आदमी, फकत अपने

    आदमी को तलाश रही थीं!

    तलाश रही थीं।

    उस शाम

    बहुत थकी हुई थीं तुम

    इसीलिए तुम उस शख्स को कुछ ज़्यादा ही

    याद कर रही थीं!

    उस शाम

    शायद तुम भूल चुकी हो

    तुम्हारी उड़ान के पंख काट दिये गए थे

    फिर भी उड़ने को उद्यत थींI

    फिर भी।

    उस शाम

    तुम्हारी पलकें आँसुओं से भीगी थीं

    होंठ सूखे थे, सूखे

    मुझे याद है—

    तुम बेचैन थीं, क्लांत थीं

    उस हालत में भी

    तुम तनिक सी

    मुस्कुराना चाहती थीं...

    चाहती थीं मुस्कुराना!

    उस शाम

    गर्म हवाएँ चल रही थीं

    काफी दिनों से

    आसमान पर जलता सूर्य

    पूरी तरह अस्ता चुका था

    चाँद नहीं था, आकाश में

    लुढ़क चुकी थी रात तुम्हारे ही आगे

    और तुम्हारे क्लांत चेहरे पर

    पसीना उमड़ आया था

    फिर भी तुम उस शख्स से

    मिलने की रट लगाए हुए थीं!

    शायद तुम भूल चुकी हो

    उस शाम की हवाएँ कितनी खौफनाक थीं

    तुम्हारा गुलाबी रंग का शॉल और दुपट्टा

    उड़ रहे थे बार-बार भागने को।

    तुम जिस बड़ के पेड़ के पास खड़ी थीं

    उस पेड़ को हवाएँ उखाड़कर

    फेंकने ही वाली थीं

    जब इक्के-दुक्के आदमी

    चलना छोड़ चुके थे

    तुम उसी आदमी का

    इंतज़ार कर रही थीं, लगातार

    इंतज़ार फिर भी।

    लेकिन मुझे सिर्फ़ याद है

    उस शाम

    तुम्हारा वह आदमी

    अनगिनत टीले, पहाड़ियाँ

    लाँघकर बहुत दूर पहुँच चुका था

    और, उससे भी दूर जाने के लिए

    नए रास्तों, नए मुल्कों की तलाश में

    निरंतर आगे बढ़ता जा रहा था!

    जा रहा था!

    आज की शाम

    तब जैसी हवाएँ नहीं चल रहीं

    आसमान की ओर देखो तो

    चाँद भी खिला है आज

    तुम्हारे तपते चेहरे पर

    तो बेचैनी है, है थकान ही

    तुम्हारे शॉल और दुपट्टे का रंग भी

    पूरी तरह बदल चुका है, पूरी तरह

    आज की शाम

    मौसम भी साफ और तरोताज़ा है,

    तो तुम किसी आदमी की प्रतीक्षा में हो

    तलाश में।

    तुम्हारे होंठ भी सूखे नहीं हैं

    इसीलिए पूछ रहा हूँ मैं

    तुम्हारा वह आदमी

    वापस क्यों नहीं आया?

    आया क्यों नहीं...

    उस शाम का अक्स/ आकृति...

    तुम्हारे हृदय के कैनवास से

    अभी तक मिटा या नहीं?

    कभी-कभार उस बड़ के

    पेड़ के पास पहुँचते

    तुम्हें उस नाजुक पल की

    याद आती है या नहीं...?

    उस शाम

    लोगों की भीड़ में

    आदमी! फकत अपने आदमी को

    तलाश रही थीं,

    कुछ ज़्यादा ही याद कर रही थीं!

    बहुत थकी हुई थीं...!!

    स्रोत :
    • पुस्तक : इस शहर में तुम्हें याद कर (पृष्ठ 29)
    • रचनाकार : वीरभद्र कार्कीढोली
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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