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दिल दुखने की बातें

dil dukhne ki baten

हरजीत अर्नेस्ट

हरजीत अर्नेस्ट

दिल दुखने की बातें

हरजीत अर्नेस्ट

रुक जाते हैं

नहीं कहते हैं

दिल दुखने की बातें

ये मौसम इधर के नहीं दिखते

खिलता है आँगन

जैसे खिलती हूँ मैं

सीख लिया है इधर की हवा ने

बुहारना किस तरह से है आँसू मेरा

और तब लगता है

पीछे झाँक लूँगी

खो नहीं दूँगी झाँकने में ख़ुद को

ये कैसी मिली

मेरी छाया मुझको

इसमें तो बीनने को काँटे ही काँटे हैं

वो पेड़ के पीले थे पत्ते

वो हवा में उड़ता हुआ आता था

‘मुझे सावन ने ज़रा नहीं भिगोया’

वो कहता था छुप के

‘तुझे मौसम नहीं चाहिए

कि तू लेकर चलती है

सावन भी और सूखा भी साथ अपने’

वो कहता था रुक के

रुक जाते हैं

नहीं कहते हैं

दिल दुखने की बातें

ये मौसम इधर के नहीं दिखते

इस बार कहाँ से शुरू करें?

चलो, तुम ही कहानी कहो

किस दन पे जाकर रुकती है तुम्हारी आँख?

क्या शरमाना याद आता है

किसी की भेदती हुई-सी नज़र से

या छुप-छुप के आँसू का बहना

एक मौसम की तरह ही

आन बैठता हथेली पर

या फिर आँगन में

सूखे पत्तों की तरह गिरे हैं दिन

और हाथ नींद में ही रह गए हैं

जाने दो

कहने को मौसम-सा ही जाने दो।

रुक जाते हैं

नहीं कहते हैं

दिल दुखने की बातें?

ये मौसम इधर के नहीं दिखते

मुँडेर पर बोलता है

तेरा डूबता हुआ तारा

कि तून आज फिर रख दी है

किसी याद में तहा के रख दी है

सूखी-सूखी-सी आँच अपनी

क्या हुआ आज?

दिन भर दुख सेंकती रही

क्या खो दिया?

जी भर के दुख छोड़ आई

ये कैसी मिली

मेरी छाया मुझको

इसमें तो बीनने को दुख ही दुख हैं

रुक जाते हैं

नहीं कहते हैं

दिल दुखने की बातें।

स्रोत :
  • पुस्तक : साक्षात्कार 280 (पृष्ठ 92)
  • संपादक : भगवत रावत
  • रचनाकार : हरजीत अर्नेस्ट

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