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पानी

pani

हरीशचंद्र पांडे

अन्य

अन्य

देह अपना समय लेती ही है

निपटाने वाले चाहे जितनी जल्दी में हों

भीतर का पानी लड़ रहा है बाहरी आग से

घी-जौ चंदन आदि साथ दे रहे हैं आग का

पानी देह का साथ दे रहा है

यह वही पानी था जो अँजुरी में रखते ही

ख़ुद-ब-ख़ुद छिर जाता था बूँद-बूँद

यह देह की दीर्घ संगत का आंतरिक सखा भाव था

जो देर तक लड़ रहा था देह के पक्ष में

बाहर नदियाँ हैं भीतर लहू है

लेकिन केवल ढलान की तरफ़ भागता हुआ नहीं

बाहर समुद्र है नमकीन

भीतर आँखें हैं

जहाँ गिरती नहीं नदियाँ, जहाँ से निकलती हैं

अलग-अलग रूपाकारों में दौड़ रहा है पानी

बाहर लाल-लाल सेब झूम रहे हैं बग़ीचों में

गुलाब खिले हुए हैं

कोपलों की खेपें फूटी हुई हैं

वसंत दिख रहा है पूरमपूर

जो नहीं दिख रहा इन सबके पीछे का

जड़ से शिराओं तक फैला हुआ है भीतर ही भीतर

उसी में बह रहे हैं रुप, स्वाद, आकार

उसके होने का मतलब ही

पतझड़ है

रेगिस्तान है

उसी को सबसे किफ़ायती ढंग से बरतने का नाम हो सकता है

वुज़ू

स्रोत :
  • रचनाकार : हरीशचंद्र पांडे
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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