टूटा हुआ उल्का पिंड

tuta hua ulka pinD

जगदीश चतुर्वेदी

जगदीश चतुर्वेदी

टूटा हुआ उल्का पिंड

जगदीश चतुर्वेदी

एक अनिश्चित दिशा में

धूमकेतु-सा बढ़ रहा हूँ मैं!

तमाम दिशाओं में उठ रही है आँधी

गिर रहे हैं उल्काओं के कण

चर्राकर टूट रही हैं मकानों की चूलें

और मर रहे हैं टिड्डियों से लोग!

उखड़ रही हैं खेतों की हरी-भरी क्यारियाँ

हवा में लग रही है आग

फूलों से निकल रही हैं चिनगारी

बैलगाड़ियों की घंटियों में स्वर मिलाकर रोते हैं सियार

और बसों की रेलपेल में फँसी हुई औरतों के

फूले पेटों में भर जाती है हवा

बैलून-सा फूलता है आसमान

और कराहती हैं डिसेक्शन हॉल में बीमार औरतों की टोलियाँ

रोती हैं विधवाएँ

चीख़ते हैं नाजायज़ बच्चे

और धूमकेतु-सा बढ़ रहा हूँ मैं

लीलने नगर का सुख

औरतों का कौमार्य

और पालने में सोए बच्चों की माताओं का सतीत्व!

आज नहीं दिखेगी कोई भी दिशा

एक अंधी कर देने वाली चमक-सी

मेरी आँखें घूमेंगी चारों ओर

गोलकों से निकलेंगे प्रकाश-पिंड

और अंधे हो जाएँगे जानवर और युवक और बूढ़े

माथे पर पट्टियाँ बाँधे लेटी रहेंगी औरतें

उन्हें मालूम है यह अनिश्चित तिथि का आवेग!

और मैं

धूमकेतु-सा बढ़ रहा हूँ

लीलने नगर को

मैं एक टूटा हुआ उल्का पिंड हूँ

—महज़ एक धूमकेतु!

स्रोत :
  • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 52)
  • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 1967

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