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अधजली सिगरेट की विदा-भूल

adhajli sigret ki vidabhul

सत्यव्रत रजक

सत्यव्रत रजक

अधजली सिगरेट की विदा-भूल

सत्यव्रत रजक

 

चुकी सिगरेट को देखते हुए दम तोड़ते मज़ूर का अंतिम कथ्य

बरसात की रात में धुआँ देती चमड़े की छत में
ओले पड़ जाने से बुझी गरमी
के सिवाय है क्या कि जिसकी देह पर अपनी आँख रखकर भूला जा सके
सांध्य दिशाओं में टोर्च की रोशनी में खोई कोई कविता
की तरह आज की सुबह होती है
जिसमें मुक्तिबोध के होंठों में पिघल चुकी आग
ठंडी बुझी मालूम सोती है
बचे रहे की उम्मीद तो नहीं की गई
राख उधेड़ने की स्मृति आ रही है
सारे शब्दों में से चुना जा चुका जीना
बेकाम बेश्रम कुरेदने की अभीप्सा बची रही है
वितृष्णा की माँग रही कि मरा जाए तो किसी दिशा में
आकाश में कोई हत्या नहीं हुई
यह मूल्य भी रहा
मूलतः आकाश की कोई हत्या नहीं होती
लेकिन हत्यारा आकाश में दिख ज़रूर जाता है
मैं तुम्हें विदा करते हुए याद दिलाना चाहता था यह।

स्रोत :
  • रचनाकार : सत्यव्रत रजक
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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