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ऊँघते हुए लोग

unghte hue log

सत्येंद्र कुमार रघुवंशी

देखो इधर-उधर गिरती अपनी देह को

कैसे सँभाल रहा है

ऊँघता हुआ आदमी

देखो

कितनी ख़ामोशी से वह

पूरा करना चाह रहा है

अपना सफ़र

अजनबी कंधों पर लुढ़के बग़ैर ही

उसकी तंद्रा में भी एक समझदारी है

उसके आलस्य में भी एक अनुशासन है

अख़बार उसके हाथ से छूटकर

नीचे नहीं गिर रहा

चश्मा उसके चेहरे पर

मज़बूती से टिका है

शायद यह किसी भागदौड़ के बाद का क्षण है

शायद यह किसी बड़ी थकान से लड़ने की तैयारी है

क्या ऊँघते हुए लोग

हिचकोलों के दौरान

इसी तरह रखते हैं

ख़ुद को शांत और व्यवस्थित

क्या ऊँघते हुए लोग

आस-पास के शोर और तेज़ आवाज़ों के बीच

इसी तरह चुपचाप जुटाते हैं

अपने अंदर की सारी ताक़त

ये ऊँघते हुए लोग

कहाँ से लाते हैं

सार्वजनिक स्थानों पर

इतनी निश्चिंतता से ऊँघने का हुनर

ऊँघते हुए लोग

ऐन मौक़े पर तेज़ी से उठकर

कैसे उतर पड़ते हैं

अपनी मंज़िल पर अचानक

स्रोत :
  • पुस्तक : साक्षात्कार 290 (पृष्ठ 50)
  • संपादक : हरि भटनागर
  • रचनाकार : सत्येंद्र कुमार रघुवंशी

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